कहाँ हो तुम? / मुकेश मानस
मैं खड़ा हूँ जाने कब से
उसी उदास राह पर
तुम्हारी ही प्रतीक्षा में
अपनी आँखों में तुम्हारी छवि लिये
तुम्हारे स्वागत में अपनी बाँहें फैलाये
अपनी अनन्त चुप्पी में
तुम्हें पुकारता
न जाने कब तुम्हें मेरा ख़्याल आयेगा
न जाने कब पुकारोगी मुझे
तुम ले के मेरा नाम।
उसी धूसर सांझ में
अब भी ठहरा है समय
जब डूबते सूरज की धुंधलाती आभा में
पीछे मुड़कर एक बार
तुमने मुझे देखा था
जाने क्या था तुम्हारी आंखों में
क्या वो तुम्हारा प्यार था……??
तुमने लहराया था हाथ विदा में
जैसे किसी पेड़ पर लहराया हो
आखिरी पत्ता हवा में
बसंत का आखिरी क्षण
जैसे ओझल हुआ हो
देखते ही देखते
ओझल हो गया चेहरा तुम्हारा
ओ रूपसी
तुमने किसे विदा किया था?
मैं तो खड़ा हूँ वहीं
उसी उदास राह पर
उसी धूसर सांझ में
तुम्हारी ही प्रतीक्षा में
कहाँ हो तुम?
किस गहन वन में विचर रही हो
किस अनन्त धुंध में
बढ़ी चली जाती हो
न जाने तुम्हें किसकी तलाश है?
2005