कहां चला गया वो राज़दार कश्ती का / रमेश तन्हा
कहां चला गया वो राज़दार कश्ती का
जो सब के साथ था अब तक सवार कश्ती का।
उसी के दम से थी कश्ती रवां रवां अपनी
वही नहीं है तो क्या ऐतबार कश्ती का।
फिर उसने खींच लिया हाथ ऐन वक़्त पे क्यों
जब उसके हाथ में था अख्तयार कश्ती का।
पड़े रहेंगे इस आतिश-कदे में कब तक हम
कहां तक और करें इंतज़ार कश्ती का।
मफर की कोई भी सूरत नज़र नहीं आती
यर किस हवा ने किया है हिसार कश्ती का।
किसी ने भी मगर उसकी न दास्तान सुनी
वो ज़िक्र करता रहा बार-बार कश्ती का।
किसे था होश बिफरती नदी को भी देखे
नशा ही ऐसा था सब पर सवार कश्ती का।
न जाने कब से मुसल्सल सफ़र में है मख्लूक़
किसे मिला है मगर आर पार कश्ती का।
भला बिसात ही क्या डूब जाने वाले की
फ़ना बक़ा में भला क्या शुमार कश्ती का।
मैं अपनी रूह की आवाज़ सुन सका न कभी
बहुत ही महँगा पड़ा है दुलार कश्ती का।
अब इसके बाद भी क्या छट नहीं गया होगा
तुम्हारे ज़ेहन पे था जो ग़ुबार कश्ती का।
बस अब तो घर चले जाना है छोड़ कर इसको
तो क्यों न त्याग दो 'तन्हा' विचार कश्ती का