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कहारों का रुद्र नृत्य / सुमित्रानंदन पंत

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रंग रंग के चीरों से भर अंग, चीरवासा-से,
दैन्य शून्य में अप्रतिहत जीवन की अभिलाषा-से,
जटा घटा सिर पर, यौवन की श्मश्रु छटा आनन पर,
छोटी बड़ी तूँबियाँ, रँग रँग की गुरियाँ सज तन पर,
हुलस नृत्य करते तुम, अटपट धर पटु पद, उच्छृंखल
आकांक्षा से समुच्छ्वसित जन मन का हिला धरातल!

फड़क रहे अवयव, आवेश विवश मुद्राएँ अंकित;
प्रखर लालसा की ज्वालाओं सी अंगुलियाँ कंपित;
ऊष्ण देश के तुम प्रगाढ़ जीवनोल्लास-से निर्भर,
बर्हभार उद्दाम कामना के से खुले मनोहर!
एक हाथ में ताम्र डमरु धर, एक शिवा की कटि पर,
नृत्य तरंगित रुद्ध पूर-से तुम जन मन के सुखकर!

वाद्यों के उन्मत्त घोष से, गायन स्वर से कंपित
जन इच्छा का गाढ़ चित्र कर हृदय पटल पर अंकित,
खोल गए संसार नया तुम मेरे मन में, क्षण भर
जन संस्कृति का तिग्म स्फीत सौन्दर्य स्वप्न दिखला कर!
युग युग के सत्याभासों से पीड़ित मेरा अन्तर
जन मानव गौरव पर विस्मित: मैं भावी चिन्तनपर!

रचनाकाल: फ़रवरी’ ४०