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कहियत भिन्न न भिन्न / भाग 1 / कुमार रवींद्र

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पूर्व कथन

युग-युग से
सदियों से
होती है रामकथा।
वाल्मीकि, कालिदास, तुलसी ने
कही कथा अवतारी राम की
और कई कवियों ने -
अमर हुए
धन्य हुए
'उत्तररामचरित' रचा भावुक भवभूति ने -
राम हुए मानव फिर।

घर-घर में रची-बसी रामकथा -
गाथा आदर्शों की
शाश्वत मर्यादा की
उन मानव मूल्यों की
जो सारे युग के हैं
सारी मानवता के।
बसे हुए राम हैं जन-मन में
जन-जन के उन अन्तर्द्वीपों में
जहाँ ज्योति जलती है अन्तरंग
सूर्योदय ही रहता है अनंत।
मन में फिर खिलते हैं
सूर्य-कमल -
होता है दूर घना अंधकार
रोज़ नये प्रश्न वहाँ उगते हैं
और धूप होती है।

ऐसा ही है प्रसंग
राम के एकाकी जीवन का -
उस गहरे एकांत का
जिसमें पीड़ाएँ हैं
और घने अन्तर्द्वन्द्व।
दृश्य यों उभरता है -

दृश्य - एक

[अयोध्या का राजभवन। राम का निजी कक्ष। अर्द्धरात्रि। कक्ष के बाह्य अन्तराल में राम खड़े हैं चुपचाप, विचारमग्न ]

राम -
(आत्मालाप) यह कैसा सूनापन
कैसा एकांत है।
अंधकार गहरा है
बाहर भी, अन्दर भी
गाढ़ा यह अँधियारा
अब मेरी साँसों का सम्बल है।

उमड़ रहीं कैसी ये स्मृतियाँ हैं -
आकृतियाँ
जैसे हों सपनों की छायाएँ।
दूर कहीं सूर्योदय की झिलमिल -
उसमें ये आकृतियाँ खेल रहीं
और यहाँ परछाईं उनकी ही दिखती है।
कैसी यह माया है।

सीते! हे वल्लभे !
दूर किसी छवियों की घाटी में
मंद-मंद मुसकातीं
तुम जादू रचती हो आज भी।
अंधी है गुफा एक
जिसमें मैं सदियों से बैठा हूँ
एकाकी प्रियाहीन।
निर्मम है -निष्ठुर है मेरा एकांत यह।

यात्राएँ करता मन दिशाहीन
अंदर-ही-अंदर

[नेपथ्य में लवकुश के रामायण-पाठ का स्वर उभरता है - साथ में पारदर्शिका, जिसमें आकृतियाँ उभरती-मिटती हैं]

लवकुश - कथा यह श्रीराम की ...
जयति-जय श्रीराम-लक्ष्मण-जानकी।
ताड़का-वध
मख-समापन
यात्रा मिथिला नगर की ओर

मार्ग में आश्रम दिखा जनशून्य -
शिला होकर रह रही थी वहाँ
ऋषिपत्नी अहल्या
शापभ्रष्टा -
उसे तारा
मुक्ति दी उस शिलापन से।
नये युग की आस्था का
है अलौकिक क्रांति का अध्याय यह तो ...
राम तब राजा नही थे।

[पारदर्शिका में गौतम ऋषि के आश्रम में शिला हुई अहल्या के राम के स्पर्श से पुनः प्राण पाने का, प्रतिष्ठित होने का प्रसंग मूक छवियों में उभरता है। राम का विचार-स्वर फिर उभरता है]

राम (आत्मालाप) - हाँ, अहल्या ...
वह समय ही और था ...
साधारण होने का वह था वरदान-पर्व।
महलों से बाहर जो
खुला-खुला जीवन है
अनुभव ने उसके दी
मुझको थी नई दृष्टि -
जुड़ने की
धरती से
धरती के सारे संवादों से।
मिली नई ऊर्जा थी;
उससे ही तोड़ सका था मैं
पथरीली धरती वह
जिसमें तुम मूर्छित थीं पड़ी हुईं -
वर्षों की वह मूर्च्छा
और शिला होने का शाप वह
क्षण भर में टूटे थे।

वह था स्पर्श एक नई क्रांति-दृष्टि का।

एक नया युग उससे जन्मा था :
अनुभव वह राम का जन-जन का अनुभव था
और ...
उसी ऊर्जा से भरा हुआ
जानकी-स्वयंबर में पहुँचा था मैं।

(लवकुश क कथा-गायन का स्वर फिर उभरता है )

लवकुश - मिथिलानगरी का धनुर्यज्ञ वह
अद्भुत था।
शिवचाप अलैकिक
उस सत्ता का था प्रतीक
जो थी अजेय।
उससे था बँधा भविष्य
धरा की पुत्री का -
भंजन उसका आवश्यक था।

राजा सीरध्वज जनक प्रजा के पोषक थे -
थे कृषक स्वयं।
कृषि-यज्ञ भूमि से उपजी थी कन्या अमोल
थी शस्यभूमि-पुत्री सीता
राजा की प्रिय पोषित बेटी।

थे राम स्वयं भी यज्ञपुत्र ...

[पारदर्शिका में मिथिलानगरी में आयोजित सीता-स्वयंबर एवं धनुर्यज्ञ के दृश्य उभरते हैं]

सारी धरती की सत्ताएँ -
पुरुषार्थ और बल-गौरव सब -
अगणित योद्धा आये समर्थ -
शिवधनुष रहा फिर भी अविजित।

राजा सीरध्वज हुए विकल -
भूमिजा रहेगी बिन-ब्याही -
शिवधनुष हुआ इसका बंधन।

फिर राम उठे जीवनी-शक्ति से भरे हुए -
फिर हुआ अचानक चमत्कार -
मानव की
आस्था के आगे
दैवी सत्ता हो गई क्षीण -
दो खण्ड हुआ शिवचाप और ...
सीता बंधन से हुई मुक्त।
वह भूमिसुता का मुक्तिपर्व
प्रेरक प्रसंग।

[पारदर्शिका में सीता राम के गले में वरमाला डालती दिखाई देती हैं - स्वस्तिवाचन एवं शंखध्वनि के साथ पारदर्शिका धुँधली पड़ जाती है। लवकुश का गायन भी डूब जाता है। राम का विचार-स्वर फिर उठता है]

राम (आत्मालाप) - मुक्तिपर्व वह मेरा भी था ..
धरती की पुत्री से वह अभिन्न भाव
मुझे जोड़ गया और अधिक
जन-जन से -
सत्ता हो गई क्षीण।

साधारण होने की इच्छा बलवती हुई;
और फिर हुआ सुयोग -
सत्ता से दूर कटे
वन के वे प्रारम्भिक वर्ष
सुखकर थे।
सीता थी साथ
और लक्ष्मण भी -
साथी मिला -नेह मिला
हमको वनपुत्रों का।
कैसा था अद्भुत वह संस्कार -
अनुरागी होकर भी वीतराग होने का।

वह अरण्यवास अब लगता है सपने-सा।

अब तो है सत्य यही एकाकी जीवन -
सत्ता से बँधा हुआ
महलों में बंदी मन -
प्रियाहीन साँसों की यह बोझिल यात्रा ही
अब मेरी नियति हुई।

सीते! मैं क्या करूँ ?
तुम बिन ये संध्याएँ बार-बार होती हैं -
निष्ठुर है सूर्योदय
आकुल सूर्यास्त भी
और घनी रातों के अंधकार।

नित्यसखी मेरी तुम ...
क्यों निष्ठुर शिला हुईं -
और मुझे छोड़ गईं यों
एकाकी निर्मम एकान्त में -
है असह्य ...
हा सीते ...

[अर्धमूर्च्छित अवस्था में राम वहीँ पड़ी आसन्दी पर निढाल हो जाते हैं]