कहियत भिन्न न भिन्न / भाग 2 / कुमार रवींद्र
दृश्य - दो
[वही कक्ष - उसके अंदर के अन्तराल में सीता की स्वर्ण-प्रतिमा। उसके सम्मुख बैठे राम आत्मालाप में व्यस्त]
राम (आत्मालाप)- बार-बार जागृति है
और वही है ... निर्मम चेतना
साँसों की प्रियाहीन।
रक्त में, शिराओं में बसी हुई आकुल उत्तेजना
कब होगी शांत, हाय !
एक ओर सारी स्थितियाँ ये
निष्चेतन क्रियाहीन
वैसी ही जैसी यह प्रतिमा है -
संज्ञाशून्य
और इधर तड़पन यह -
रोज़ विवश जीने की यातना।
सीते! हा सीते !
तुम कहाँ गयीं ?
ऋषियों की तपोभूमि, यज्ञभूमि ...
नैमिष का वह अरण्य...
मुझको भी कर गये अरण्य, हाय !
लौटा हूँ मैं असार-निराधार
अभिशापित-निस्सहाय।
कैसा था यज्ञ, हाय !
मेरी जो शक्ति थी, ऊर्जा थी, प्राण थी
समां गयी धरती में
हाय ! यही ...
केवल शव शेष रहा
और ...
इसे लेकर मैं
भटक रहा बूढ़ी संज्ञाओं के घेरे में।
[राम की इस आंतरिक अकुलाहट में कक्ष के अवकाश में नैमिषारण्य की यज्ञभूमि का दृश्य उभरता है। यज्ञभूमि में सभाभवन। राम बीच में एक आसन पर बैठे हैं। पास के आसनों पर भरत-लक्ष्मण-शत्रुघ्न, गुरु वशिष्ठ और तीनों माताएँ आसीन हैं। एक ओर ऋषि वाल्मीकि और उनका ऋषिकुल आसीन है। उनके साथ लवकुश हाथ में वीणा लिये मुनिकुमारों के वेश में खड़े हैं। चारों ओर राज्य-सभासद और प्रजाजन बैठे-खड़े हैं। बीच के अन्तराल में तपस्विनी वेश में सीता नतमस्तक खड़ी हैं। वाल्मीकि राम को सम्बोधित करते हैं]
वाल्मीकि - बोलो श्रीराम !
सीता की शुद्धि का प्रमाण तुम्हें चाहिए
अब भी क्या ?
मुझको जो सत्य मिला
ऋत के अन्वेषण से
अपने उस ज्योतिर्मय अनुभव से कहता हूँ
सीता है परम शुद्ध -
धरती की बेटी यह धरती सी है पवित्र
सीता अपवित्र कभी होती है, बोलो राम !
तुम तो हो स्वयं ज्ञान के स्वरूप -
अपना मन देखो तुम
क्या कहता ?
सीता को स्वीकारो, देता आदेश मैं।
[राम मौन रहते हैं। गुरु वशिष्ठ उन्हें मौन देखकर कहते हैं]
वशिष्ठ - राम, मौन क्यों हो तुम ?
ऋषिवर की वाणी में सत्य बोलता है
स्वीकार करो -
वाल्मीकि आश्रम में जनमे ये लवकुश
पुत्र हैं तुम्हारे ही।
सीता की शुद्धि हुई स्वतः प्रमाणित यों।
लोक के प्रवाद का प्रश्न जहाँ तक रहता
होंगे हम सब साक्षी।
सीता को स्वीकारो
है अभिन्न यह तुमसे।
[राम की मुखाकृति में भावों का आन्दोलन होता है। उससे उबरकर वे बोलते हैं]
राम - मुनिश्रेष्ठ ! गुरुवर !
आप दोनों ही परमपूज्य
दोनों का मुझ पर अधिकार है।
आपकी अवज्ञा करे राम
नहीं संभव है।
किन्तु ...
तर्क नहीं करता मैं आपसे
नम्र है निवेदन बस।
व्यक्ति राम के निर्णय का है यह प्रश्न नहीं -
राजा से ऊपर भी होती है मर्यादा।
ऋषियों की, शास्त्रों की वाणी
है अगम्य
मन्दबुद्धि राम उसे क्या समझे ?
मन का विश्लेषण है बड़ा कठिन -
उसका भी क्या कहूँ ?
जग-प्रवाद माना अब मौन हुआ
और शायद आगे भी शांत रहे
किन्तु प्रश्न यह है मर्यादा का -
सत्ता की अपनी मर्यादा का।
सत्ता की वाणी की
राजा के वचनों की अपनी मर्यादा है।
जनता का उसमें विश्वास हो
यह भी आवश्यक है -
मेरा तो सत्य यही मर्यादा।
क्षमा करें गुरुजन
मैं क्या करूँ ?
है पवित्र जानकी - परम शुद्ध
किन्तु लोक भी उसे स्वीकारे
और वह पूजित हो जन-जन में
यह भी आवश्यक है।
सत्त्व रहे उसका
और...
हो रक्षा मेरी भी वाणी की
ऐसा कुछ हो जाए।
अब उसके हाथों में मेरी मर्यादा है
उसकी भी है अपनी मर्यादा।
मैंने अन्याय किया उसके प्रति
निर्णय अब उसका हो।
[ दृश्य धुँधला जाता है। राम के आत्मालाप का स्वर फिर उभरता है]
राम (आत्मालाप) - यों...
निर्णय सीता पर छोड़ हुआ मैं न्यायी -
होकर तटस्थ
मैंने सोचा हो गया न्याय।
जो थी अभिन्न
उससे ही मैं हो गया अलग।
निर्मम था मैं
सीता थी व्याकुल-मर्माहत।
[दृश्य फिर उभर आता है। सीता आहत दृष्टि से राम की ओर देखती हैं। फिर धरती पर अपनी अश्रुपूरित दृष्टि टिकाए बोलती हैं]
सीता - कैसी अस्पृश्य हुई मैं !
राजा की वाणी है
यह मेरे राम की नहीं -
पहले मैं त्याज्य थी
अब हूँ मैं अस्वीकृत
कैसे यह मन मेरा जीवित है ?
अब भी यह ह्रदय नहीं फटता है
मैं धरती-पुत्री हूँ
निराधार मुझको है शेष रहा
माँ का ही बस आश्रय।
किसकी मैं साक्षी दूँ ?
मन में जो युग-युग से पलता है नेह-भाव
उसकी क्या ?
वह है स्वीकार नहीं राजा को - लोक को
मेरी मर्यादा तो पहले ही खंडित है।
देव नहीं साक्षी हो पायेंगे -
वे सारे हैं तटस्थ
मर्यादित राजा-से
लोक-लाज, नियम सभी हैं विरुद्ध
अब तो दें साक्षी माँ धरती ही -
यदि मन से और वचन-कर्मों से
चिन्तन से, देह से
भावों से, रक्त की शिराओं से
सारी इच्छाओं से
हर पल चेष्टाओं से
मैं हूँ बस राम की
तो धरती माँ आकर
मुझको स्वीकार करें
... ... ..
अस्वीकृत होते जो
उनका है आश्रय यह धरती की गोद ही।
माँ मेरी ...
लौटा लो मुझको अब अपने उस गर्भ में
जहाँ व्यथा पलती है ममतामयि
और जो सिरजती है प्राणों को।
शिला हुआ मन मेरा
शिला करो मेरी यह देह भी ...
[सभागृह का वह भाग भीषण गड़गड़ाहट के साथ फट जाता है, जहाँ सीता खड़ीं थीं। एक अग्नि-ज्वाल सा उठता है। उसमें एक पारदर्शी आकृति उभरती हैं, जो सीता को बाँहों में समेट लेती है। सीता की आकृति भी पारदर्शी होकर उसी आकृति में समां जाती है। दृश्य एकाएक धुँधला जाता है। राम का आत्मालाप फिर जगता है]
राम (आत्मालाप) - स्तम्भित और ठगा
देखता रहा था मैं
प्रिया का समाना वह धरती में
कैसी थी मूढ़ता !
उस क्षण ही राम मरा -
शेष रहा राजा बस।
यों था सम्पन्न हुआ अश्वमेध यज्ञ वह
पूर्णाहुति बनी प्रिया -
आहुति हो गया राम।
लौटा ले मातृहीन बेटों को
और स्वर्ण-सीता को।
तबसे यह साँसों का क्रम है
खण्डहर में घूम रही शापित आत्माओं सा।
सूर्योदय कबका है डूब चुका -
शेष बचा है गहरा अन्धकार
और घनी मूर्च्छाएँ ....
[फिर मूर्च्छित हो जाते हैं]