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कहियत भिन्न न भिन्न / भाग 3 / कुमार रवींद्र

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दृश्य - तीन

[वही रात्रि -वही कक्ष। राम अर्द्धमूर्च्छित अवस्था में शैया पर लेटे हैं। अन्तर्कक्ष से आकृतियाँ और छवियाँ उभरती हैं, एक-एककर राम के चारों ओर नृत्य करती हैं, उनके अन्तर्मन में प्रवेश कर स्वप्न एवं दृश्य बनती हैं। पहले मारीच की प्रेताकृति आती है - स्वर्णमृग के रूप में। मारीच लुभानेवाली चेष्टाएँ करता है ]

मारीच - 'हा लक्ष्मण ... हा सीते...'
कहो राम !
कैसा था अभिनय वह मेरा ?
छली गयी सीता थी मेरे इसी रूप से
और इसी स्वर से भी।

सत्य और छल की हैं आकृतियाँ अलग नहीं
दोनों में अन्तर भी अधिक नहीं।
मैं तो था राक्षस
छल-छद्मों से भरा हुआ
पर तुम तो थे प्रभु और थे परात्पर भी
फिर भी क्यों छले गये मेरे इस भ्रम से तुम ?

राम, स्वर्ण होने का मेरा वह आग्रह
शारीरिक वह समृद्धि
नकली थे - नष्ट हुए।
मैं भी था मुक्त हुआ सारे आवरणों से।
तुम सच में प्रभु थे तब।

किन्तु ...
वह अलौकिकता ...
स्वर्णिम आकारों से वीतराग होने की वह क्षमता
जो मुझको पूज्य थी
हाय, अब कहाँ गयी ?

होते ही राजा तुम
सोने के उस छल से ग्रस्त हुए -
कैसा सम्मोहन यह !
सोने की प्रतिमा में सीता को खोज रहे -
कितने दयनीय हुए तुम।
क्या कहूँ ?
मेरा छल जीत गया
सत्य हुआ मेरा भ्रम, हाय राम !

[मारीच की आकृति कहते-कहते विलीन हो जाती है। उसी धुँधलेपन से रावण की महाकार छायाकृति निकलती है। रावण के चेहरे पर, आँखों में व्यंग्यभरी मुसकान है]

रावण - कहो राम, कैसे हो ?
यह क्या हो गया तुम्हें ?
मूर्च्छा में डूबे हो -
कैसा आश्चर्य यह !
शासन की गरिमा से भरे हुए
कैसा आश्चर्य रचा है तुमने सत्ता का -
कहती है प्रजा वही करते हो।
... ... ...
जानकी दिखाई नहीं देती है -
छोड़ गयी तुमको क्या ?
दोष मुझे मत देना -
मैंने तो हरा नहीं उसे।

[व्यंग्यभरा अट्टहास करता है। राम उद्विग्न-व्यग्र होते हैं]

अच्छा, यह सीता है कक्ष में ...
कैसी आकर्षक है अब भी !
सोने की प्रतिमा-सी लगती है -
अरे, यह तो है उसकी प्रतिमा ही।

[फिर हँसता है]
सोने की लंका थी मेरी
और मैं भी था उद्भट सम्राट
किन्तु ...
सीता थी रही वहाँ प्राणवान और सजग।
सोने की शिला यहाँ क्यों हुई ?
समझा ...
राजा हो... सोने का सम्मोहन हुआ तुम्हें
इसीलिए सीता को सोने की शिला किया।
अद्भुत है तुम्हारा स्पर्श, भाई।
शिला प्राणवान हुई और हुई ऋषि-पत्नी -
करके विपरीत क्रिया
पत्नी को सोने की शिला किया।
सच, तुम हो पुरुषोत्तम।

यदि तुमको सोने का इतना ही मोह था
मुझसे कह देते
सीता के बदले में सोने की लंका मैं दे देता।

[एक दीर्घ उच्छ्वास भरता है]

अहह राम !
दुर्लभ थी जानकी
और मुझे विद्युत् की किरणों-सी दहती थी।
मन मेरा प्रेमी था दुर्लभ हर वस्तु का।
हरण किया था उसका मोहग्रस्त होकर ही -
किन्तु ...
वह समर्पित थी तुमको ही एकनिष्ठ -
पूरी तरह।
मेरा सब पौरुष ... सारी प्रभुताएँ -
मेरी समृद्धि सभी
सारे आकर्षण, सम्मोहन वे
जिससे थीं मन्त्रमुग्ध खिंची चली आतीं
सब देव, असुर, नाग, यक्ष कन्याएँ –
वह सारा व्यर्थ गया।
क्रोध मुझे आता था
भक्ति भी उपजती थी उसके प्रति।

और फिर आये थे राम तुम।
देख तुम्हें जाना था मैंने ...
तुम दोनों हो अभिन्न
उपजा संदेह था अपने प्रति -
था पहली बार लगा मुझको
प्रीति है अलौकिक और दुर्लभ कमनीय भी।
काश, मुझे मिल पाती ...
जीवन यह व्यर्थ गया प्रीति बिन।

मन ही मन मैंने आसीसा था
तुम .. दोनों को -
श्रद्धा से भरे हुए वे क्षण
मुझको थे पूजनीय।

[फिर एक दीर्घ निश्वास लेता है। राम के चेहरे पर गहरी व्यथा अंकित है]

[विह्वल स्वर में] किन्तु राम, तुमने यह क्या किया -
सीता को त्याग दिया।
कैसे तुम कर पाए यह कुकृत्य -
तुम दोनों थे अभिन्न।

बोलो तो ...
इतना उद्योग किया -
हाँ, अलंघ्य सागर पर बाँध सेतु
मुझ अजेय रावण को मारा था
क्या केवल ...
अपनी अहं-तुष्टि हेतु ?

ब्राह्मण के पूरे-के-पूरे कुल की हत्या का
पाप लिया सिर पर था
क्या केवल सीता को यों कलंक देने को ?
इतनी हत्याएँ...
इतना वह नर-संहार किसलिए ?
मात्र इक बहाना थी सीता क्या ?

मुझको थी वन्दनीय जानकी -
रहने उसे देते मेरे पास ही।

नहीं राम, जनरंजन
मात्र इक छलावा है।
यदि मैंने भोग को बनाया था अंतिम सत्य
तो तुमने निर्मम त्याग को।
दोनों हैं अर्द्धसत्य और आत्मघाती भी।

और प्रजा ...
रहती है आदिम ,,, संस्कारहीन।

[जोरों से हँसता है]
हा-हा-हा ...
धन्य राम !
हो गये परात्पर तुम -
मर्यादापुरुषोत्तम
किन्तु कटे धरती से
हाँ, उसकी बेटी से
और अब मूर्च्छाओं में डूबे
रचते एकांत नये
हा-हा-हा ...
कैसी मर्यादा यह अपरिमेय-अन्तहीन !

[हँसते हुए रावण की प्रेताकृति विलुप्त हो जाती है। उसके अट्टहास की गूँज थोड़ी देर तक कक्ष के अन्तराल में टकराती रहती है। राम अत्यंत विचलित-उद्वेलित लगते हैं। अन्तर्कक्ष से कटे सिर को हाथ में पकड़े शूद्र तपस्वी शम्बूक की रुण्ड-छायाकृति आगे आती है]

शम्बूक - ईश्वर... प्रभु होने की इच्छा ...!
राम, यही मेरा अपराध हुआ।
तुम थे प्रभु जन्म से
किन्तु मैं जन्मना था अन्त्यज ...
पाना था चाहा...
एक अंश छोटा-सा प्रभुता का
जिसके तुम पूर्णपुरुष।
किन्तु मुझे दण्ड मिला मृत्यु का।
कैसा था न्याय यह
हाँ, राजा राम का।
मात्र जन्म ही है क्या
जीवन का चरम बिंदु - अंतिम आधार वही ?
हाँ सीता भी तो
अज्ञातकुलशीला थी -
धरती की पुत्री थी
किन्तु उसे मिले जनक
और फिर तुम भी तो ...
अपनाया उसको था तुमने आकाश बन।

किन्तु वह ...
तुम्हारा अपनाना भी ...
मिथ्या हुआ।
मुझसे भी अधिक हुई अपमानित जानकी।
वह जो वीर्यशुल्का थी - वीर-प्रसू
उसका यों तिरस्कार ...
सत्ता का आग्रह क्या अँधा ही होता है ?

राम !
यह प्रजा ...
जिसकी इच्छा से तुम चले
अब भी है वैसी ही -
संकुचित-अपाहिज-अज्ञानी - अनुदार भी।
बस प्रभु ही आश्रय हैं इसके।
प्रभुता को पूजती -
चलते तुम इसकी अंधी इच्छाओं से।
राजा तुम हुए - दृष्टि खो बैठे -
सीता का त्याग किया
हत्या की मेरी फिर।
अस्वीकृति, हाय ! सिर्फ अस्वीकृति ...
कैसा यह राजधर्म !
[एक खिन्न मुस्कान के साथ]
राम !
यह अलौकिक होने का आग्रह...
होता है ऐसा ही...

[कहते-कहते वह भी अन्तराल में धुँधला जाता है। राम अर्द्धजाग्रत होते हैं। उनके चेहरे पर विचलन का भाव साफ़ दिखाई देता है]

राम (आत्मालाप) - हाय ! प्रश्न...
केवल प्रश्न...
मन मेरा अंतरीप हो गया
जिस पर हैं चट्टानें-ही-चट्टानें
नोकीली-धारदार -
घायल यात्राएं हैं बार-बार वहीँ-वहीँ।

बर्फीले पर्वत की चोटी पर बैठा हूँ
एकाकी -
जल-प्लावन होता है दभी ओर-
अन्धकार बढ़ता ही जा रहा -
युगों-पूर्व सूर्योदय वन में जो देखा था
बिला गया जाने किस अंधकूप घाटी में
और ये अनास्था की आकृतियाँ
घेर रही हैं मुझको -
क्या करूँ ?

क्षण-क्षण यह कालचक्र
तोड़ रहा है मुझको -
घूम रहा, कुचल रहा है निष्ठुर यह
मेरी आस्थाओं को
सारी ही मृदुल-मधुर दैवी संज्ञाओं को।
काश, शिला हो पाता
या...
फिर हो पाता एक बार फिर से साधारण मैं।

कहता शम्बूक सही -
निष्ठुर है और क्रूर हृदयहीन
प्रभु होने का आग्रह।
काश !...
वही होता जो कहता दशग्रीव है -
जीवित तो रहती फिर सीता।
किन्तु... कालचक्र नहीं पीछे है मुड़ पाता।
प्रभु हो या कोई भी
सारे असमर्थ हैं।
आस्थाएँ सत्ता से जुड़कर
हो जातीं दीन-हीन हास्यास्पद
या... होतीं वे कपटी स्वर्णमृग।

सीते ! हा सीते !
यह सच है
मैं अन्यायी-ढोंगी हूँ -
रावण ने साधू बन तुम्हें ठगा -
मैंने प्रभु होकर भी वही किया -
ठगा तुम्हें प्रभुता से, न्याय से।
प्रेमी था ...
किन्तु बना राजा मैं
और तुम्हें त्याग कर सोचता रहा
यही श्रेष्ठ राजधर्म है।
और अंत में ...
हाय ! विवश किया
करो आत्महत्या तुम।
कैसी मर्यादा यह - कैसा आदर्श यह !

अब मैं हास्यास्पद हूँ।
हँसते हैं वे भी अब मुझ पर
जो पशु थे
या थे फिर दम्भी और धूर्त-चतुर।
मैं भी तो उन-सा ही ...
नहीं...नहीं...उनसे भी गर्हित हूँ।
उनके अन्याय से प्रताड़ित थे अन्य लोग
मैंने अन्याय किया है तुमसे
जो नितांत अपनी थीं।
दम्भ यह, दुराग्रह यह प्रभुता का
क्षम्य नहीं ...
दुष्कर अपराध है दण्डनीय।

कहते सब मुझको सर्वज्ञ हैं -
मैं भी था ऐसा ही सोचता।
किन्तु आज रावण ने दिखा दिया
कितना अल्पज्ञ मैं।
कहता शम्बूक सही
मैंने बस अस्वीकृति को ही स्वीकारा है
जीवन भर
और वही अस्वीकृति
अब मेरा बन्धन है।
क्या करूँ हाय ...
सीते ! मैं क्या करूँ ?
मार्ग नहीं दिखता है एकाकी, जानकी !
आओ, तुम लौट आओ ...
वैदेही ! ... ...

[कहते-कहते आत्म-विह्वल हो संज्ञाशून्य हो जाते हैं]