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कहियत भिन्न न भिन्न / भाग 4 / कुमार रवींद्र

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दृश्य - चार

[वही कक्ष -वही रात्रि। कुछ समय उपरान्त राम अर्द्ध-सुप्तावस्था में शैया पर लेटे हैं। अन्तर्कक्ष में स्थित सीता की मूर्ति में अचानक हलचल होती है। उसमें से एक-एककर छायाकृतियाँ बाहर आती हैं। राम के स्वप्न से एकाकार हो जाती हैं। पहली आकृति अहल्या की है]

अहल्या - राघव !
यह कैसी निश्चेतना
कैसी यह मूर्च्छा है ?
संशय का स्वर यह ...
और यह पलायन... किससे ...?
यह कैसा छल ... बोलो !

साक्षी हूँ मैं तो
उसी नये सूरज की
आस्था की उन पहली किरणों की
जिनमें था
जीवन का अप्रतिम उल्लास अमल
और नये युग की थी
व्यापक उद्घोषणा।
शब्द आज भी मेरी साँसों में गूँज रहे।
राघव वे शब्द नहीं
हैं वे तो ऋचामन्त्र युग के परिवर्तन के।
तुमने था कहा -
'सूर्य हूँ मैं वह
जिसका स्पर्श तोड़ दे जड़ता -
सारी वह वर्षों की जकड़न
जिसमें तुम बंदी हो ऋषिपत्नी।
उठो...अहिल्ये उठो...
मेरा आदेश यह
तुम हो अपवित्र नहीं।'
कैसी तब बिजुरी-सी कड़की थी।
और...
मेरी उस पाषाणी देह में प्राण लौट आये थे।

राम, वही आस्था है आज भी
युग का सत्य।
भूल गये तब तुमने
मुझसे था क्या कहा -
'नारी की देह है अलौकिक -
होती अपवित्र नहीं ;
मन का ही कलुष पाप होता है'
और उन्हीं वचनों की आस्था से
अब तक मैं जीवित हूँ।

तुम तो थे युगपुरुष
और थे नियंता स्वीकारों के।
सीता का अस्वीकार....
विस्मित हूँ मैं अब भी -
तुमने कैसे किया !

राम, मैं अहल्या थी
तुमने दी गति मुझको -
जीवन-आधार दिया ...
होता विश्वास नहीं
सीता हो गयी शिला
और तुम ...
हो गये कुलिश-कठोर
अपनी ही प्रिया के प्रति -
तुमने था कहा कभी, याद तुम्हें ?
'ममता-अनुराग ही बस शाश्वत सत्य है'
और आज ...

नहीं राम, यह सब है सत्य नहीं
केवल दुःस्वप्न है।
जागो राम... जागो !

[राम अर्द्धनिद्रा में बड़बड़ाते हैं और अहल्या की आकृति उनके स्वप्न में विलीन हो जाती है]

राम-(अर्द्धमूर्च्छा में)
सब कुछ है स्वप्नवत –
आस्था भी...अनास्था भी
प्रश्न यहीं पर ठहरा ...
उत्तर... है कोई नहीं

[अंतर्कक्ष से शबरी की आकृति निकलती है, राम के निकट पहुँचकर उनका माथा सहलाते हुए कहती है]
शबरी - मेरे प्रभु !
तुम त्राता, तुम ही उद्धारक हो।
तुम हो सर्वशक्तिमान
शाश्वत सर्वज्ञ हो।
जागो प्रभु, मूर्च्छा यह ठीक नहीं
ऋषियों से मैंने यह जाना था
प्रभु होते मूर्च्छित जब
सृष्टि प्रलय होती है।

शबरी थी ... मैं थी कुलहीन...
किन्तु ...
ऋषियों की सेवा में रहकर मैं सिद्ध हुई;
वे सब तो चले गये ब्रह्मलोक
और मैं अकेली ही
शेष रही उस मतंगवन में
रात-दिन प्रतीक्षा में
आएँगे मेरे प्रभु।

और... फिर आये तुम।
जाति-बाह्य शबरी के हाथों से बेर खाये -
वह मेरी जूठन भी तुमने स्वीकार की
तुम थे अवतार-पुरुष;
तुम हो अवतार-पुरुष ...
छलो नहीं अपने को इस तरह।

घटना शम्बूक की अनास्था की घटना है -
तप का था दम्भ उसे,
प्रभु कैसे होता वह -
तप तो मन के विकार-दम्भों के
जलने की प्रक्रिया है।
तुमने दी मुक्ति उसे उस तप से
जिससे वह दम्भों का पोषण था कर रहा।
इसीलिए था उसका दुष्प्रभाव -
ब्राह्मण के बेटे की अकालमृत्यु।

जागो प्रभु...जागो ...

[शबरी की आकृति भी राम के स्वप्न में विलीन हो जाती है। राम फिर मूर्च्छा में बड़बड़ाते हैं]

राम (अर्द्धमूर्च्छा में)-
दुष्प्रभाव दम्भों का
या ...
मेरी मर्यादा का...
दोनों हैं एक ही...
अन्तर है कोई नहीं -
प्रभु की हो क्रीड़ा या मानव की साधना,
दोनों का है प्रभाव है एक ही -
दोनों हतभाग्य हैं।

[सीता की स्वर्ण-प्रतिमा से शूर्पणखा की छायाकृति निकलती है। वह लुभावने हाव-भाव, चेष्टाएँ करती है। राम के चेहरे पर जुगुप्सा और आतंक का मिला-जुला भाव उभरता है। शूर्पणखा उनके चारों ओर मादक काम-नृत्य करती है। फिर हँसते हुए उन्हें सम्बोधित करती है]

शूर्पणखा - वाह राम !
अब भी हो दर्शनीय
जैसे तुम पहले थे।
वैसा ही रूप
वही देह की गठन अब भी,
सम्मोहन -आकर्षण वही, राम !
यह कैसा जादू है !

हाँ, थोडा अन्तर है -
तुम लगते हो किंचित थके हुए और भ्रमित,
थोड़े दयनीय भी।
पर...
मैं अब भी प्रस्तुत हूँ;
तुम भी निर्बाध हुए।

जीवन है स्वप्नवत क्षणभंगुर -
आओ, हम उसका पूरा आनन्द लें।
जब तक हैं ये शिराएँ तपने को सुख से
तब तक ही जीवन है।
बहतीं हैं अन्दर जो धाराएँ
आतुर उत्ताप की
वही सत्य।

आओ, देव-दुर्लभ आनन्द लें।

सीता थी साधारण...
मामूली कृषिभूमि कन्या थी।
सत्ता के संग नहीं चल पायी।
तुमने निष्काषित कर सीता को ठीक किया -
कैसा वह मोह था
जिससे तुम बँधे रहे सीता से।
अब भी सम्मोहन वह ज़िन्दा है,
देता है व्यथा तुम्हें।
वह तो अब छाया है मृत्यु की;
उससे मत बँधे रहो।
अपने को मुक्त करो निष्फल मर्यादा से।
सुन्दर है
कितना कमनीय है जीवन यह -
देहों का आकर्षण !
आओ, जियो मेरे साथ
जीवन के सुख सारे।

जागो...प्रिय ! जागो !...

[राम की आँखें काँपकर खुल जाती हैं। भय और आतंक उनके चेहरे पर अंकित है]

राम(आत्मालाप) -<b>

यह कैसा भीषण दुःस्वप्न था -
मन में क्या यह विकार जीवित था ?

सीते ! मैं पतित हुआ ...
और हुआ दण्डनीय।
लगता है भय मुझको अपनी मूर्च्छाओं से।
साध्वी अहल्या और शबरी की आकृतियाँ
थीं मेरे मन का ही प्रक्षेपण -
आयीं थीं आस्था बन।
रावण, मारीच और तापस शम्बूक भी
मेरी पहचानी आकृतियाँ हैं
और कहीं जीवित हैं मुझमें।
किन्तु ... यह शूर्पणखा ...
हाय ! मुझको धिक्कार है।

सीते ! मैं अपराधी ...
वंचक हूँ -
कैसी यह विकृति है मन की।

सोचो तो
जीवन भर मैं था यों छला गया
अपने ही आप से।
सोचता रहा - मन में कोई विकार हैं नहीं;
मैं केवल सीता का;
यह भी भ्रम ही निकला।
रघुवंशी मर्यादा ...
मेरी सब नीति-प्रीति...
मिथ्या हो गयी सभी -
कैसी यम-यातना !
सीते ! दो मुक्ति मुझे पापी इस जीवन से।
मैं हूँ हत्यारा उस निष्ठां का
जिसमें तुम जीवित थीं।
अब क्या है शेष बचा ?
धिक् ! धिक् ! यह राम नहीं जीने के योग्य रहा।

<b>[भावातिरेक में राम फिर मूर्च्छित हो जाते हैं]