कहियत भिन्न न भिन्न / भाग 5 / कुमार रवींद्र
दृश्य - पाँच
[राम शैया पर मूर्च्छित पड़े हैं। ब्राह्म मुहूर्त्त हो रहा है। सीता की प्रतिमा से एक तेज प्रकाश-पुंज निकल रहा है। प्रतिमा एक जीवित आकार ले लेती है। मंद-मंद वीणा का स्वर उभरता है - नूपुरों की मोहक रुनुक-झुनक सुनाई देती है। चारों ओर दैवी पुष्पों की सुगंध फ़ैल जाती है। सीता अपने सम्पूर्ण दैवी सौन्दर्य के साथ प्रकट हो जाती हैं। वे राम के मस्तक को गोद में लेकर उन्हें प्यार करती हैं - मधुर-मधुर वाणी में बोलती हैं]
सीता - राघव ! रघुनन्दन !
प्रिय मेरे राम !
यों मत आत्म-विह्वल हो;
आत्म-ग्लानि से भरकर
अपने को क्षीण मत करो
शूर्पणखा, जिसे देख विचलित हो तुम इतने
मेरी ही सृष्टि थी -
मेरा ही रूप थी।
लीला यह सृष्टि की
सिर्फ क्या तुम्हारी है ...
मैं भी तो हूँ लीला रच सकती -
संगिनी तुम्हारी हूँ
माया हूँ राम की ...
व्यापी हूँ राम को।
छोटा-सा खेल किया
और तुम व्यथित हुए हो इतना।
[हँसती है। उस मन्द स्मित और दैवी हँसी से वातावरण का सारा तनाव छँट जाता है। राम के चेहरे पर भी मुसकान उभर आती है]
शूर्पणखा भी तो है नारी ही,
मुग्धा भी।
काम और वासना
जीवन के आवश्यक अंग हैं;
देह भी अलौकिक है
और कहीं सत्य भी।
शूर्पणखा का आग्रह देह का था
वह भी अभूतपूर्व -
संतुलित नहीं था ...
इसीलिए अनुचित था।
उसका वह देहराग मुझमें भी -
मानवी हूँ मैं ...
धरती से उपजी हूँ
इस नाते शूर्पणखा मुझमें भी जीवित है।
विस्मित क्यों होते हो राम यों ?
अपनी इस लीला में सब कुछ है सम्मिलित -
राक्षस भी देव भी;
आत्मा भी देह भी -
है न रघुवंशमणि !
शूर्पणखा भी तो आई थी बनकर प्रेमिका ही -
मेरी सहधर्मा थी -
नारी के हम दोनों दो पहलू हैं अलग-अलग
किन्तु कहीं एक भी ...
पूरक हैं आपस में -
मुझको है प्रिय यह भी -
दोनों स्वीकार्य हों।
मेरा ही अर्द्धभाग आया बन शूर्पणखा
और तुम ...
कातर मोहग्रस्त हुए।
प्रतिकृति से डरो नहीं -
वह तो थी प्रति-सीता
राम का विलोम ज्यों रावण है
वैसे ही सीता का है विलोम शूर्पणखा -
दोनों ही सत्य हैं
और हैं उपस्थित हर व्यक्ति में;
हममें भी।
[राम मुस्कराते हैं। मन्द स्मिति के साथ सीता कहती हैं]
बोलो रघुनन्दन !
आँखे खोलो !
यह जो तुम देख रहे
स्वप्न नहीं सत्य है।
[राम आँख खोलकर सीता को मन्त्रमुग्ध निहारते हैं]
इस तरह निरीह हुए, राम, तुम
त्रस्त हुए स्वयं
और मुझको भी त्रस्त किया;
हम दोनों हैं अभिन्न
फिर यह सन्ताप क्यों ?
[राम सीता को आलिंगन बद्ध करते हुए कहते हैं]
राम- सच में...
हाँ, सीते !
सच में यह तुम हो।
आयीं तुम लौट, प्रिये ! सचमुच ही।
कैसे दुःस्वप्नों ने घेरा था
तुम बिन यह राम रहा प्राणहीन;
सीता बिन राम तो निरर्थक है - सत्त्वहीन।
सीता हो साथ तभी राम नाम सार्थक है।
आओ प्रिये !
हम दोनों चलते हैं वन को फिर -
कैसे थे सम्मोहक दिन वे वनवास के।
कैसी थीं अपनी क्रीड़ाएँ -
कोमल और सरल-चित्त अनुरागी।
याद तुम्हें...
उस दिन...मन्दाकिनी के तट पर
हमने जब बालू पर
नाम लिखे थे अपने साथ-साथ
तभी लहर आयी थी
और घुल गये थे मौन
अक्षर वे संग-संग...
और हम
बच्चों की भाँति रहे थे हँसते
और फिर...
बाद में हँसे थे यह सोचकर
कैसे हम मूर्ख हैं
बालू पर बना रहे थे अपने स्वप्न-महल।
हँसना वह अनायास बिना-बात
सम्भव अब नहीं रहा
आओ, चलें !
[सीता और राम दोनों साथ-साथ हंसते हैं]
सीता - हाँ, राघव !
सचमुच वे दिन थे अनुराग भरे -
स्वर्गिक भी।
यौवन की क्रीड़ाएँ ऐसी ही होती हैं
भोली...
और अनायास।
नटखट थे तुम भी तो -
कई बार वन में
छिप जाते थे पेड़ों के झुरमुट में
और मैं...बावरी
खोज-खोज तुम्हें हार जाती थी,
पास-पास घूम-घूम लौट-लौट जाती थी
और तुम...
पीछे ही खड़े-खड़े मुस्काते रहते थे
और फिर...
पूरी तरह व्याकुल कर...
अकस्मात पीछे से बाँहों में घेरकर...
और मैं झगड़ती थी
बच्चों-सी खीझकर।
सच राघव, वे थे अति सुन्दर दिन।
राम - सीते !
याद तुम्हें वह दिन क्या
जब जयंत आया था सूने में
और तुम्हें पाकर एकाकी...
सीता (भय-मिश्रित स्वर में)-
नहीं राम... नहीं...नहीं...
ऐसी घटनाओं की याद मत दिलाओ अब।
उत्पाती राक्षस या देवों की
कमी नहीं जीवन में
चाहे हम कहीं रहें।
राम - हाँ, सीते !
यह सच है।
वन से हम लौटे थे गरिमा से भरे हुए
उत्कंठित...
अपनी इस नगरी में...
किन्तु यहाँ क्या मिला ?
स्वप्न हुए भंग सभी
और हम हुए... अलग।
कैसी थी दुरभिसन्धि सत्ता की
मैं भी हो गया क्रूर राक्षस था।
सीते... ...!
हम लौट नहीं पाएँगे क्या... हाय !
अपने उन अनुरागी सपनों में
[राम का स्वर फिर विह्वल हो जाता है। क्षणार्ध के बाद वे फिर पूर्व-सन्दर्भों की याद करते हुए कहते हैं]
सोचो तो, जानकी ...
कल की सी बात अभी लगती है -
याद मुझे
वह पहली दृष्टि-मिलन की वेला।
वाटिका-सरोवर के पास...
गौरी के मन्दिर में
सखियों संग तुम जाती थीं
और मैं...
करता था पुष्प-चयन,
तभी मिली थीं आँखें
और लगा था
जैसे तुम नितान्त अपनी हो।
वह क्षण...
सीता - राघव ! हाँ, राघव...!
वह क्षण ही तो हुआ मुझे सम्मोहक -
किंचित उत्पीड़क भी,
जब तक शिव-चाप रहा बाधक-सा।
मेरा सौभाग्य था
कोई नहीं साध सका उसे
और...
फिर गौरी का वर ही फलीभूत हुआ।
तुमने किस लाघव से
दुर्दम उस चाप को उठाया था
और फिर... पल भर में
हाय ! वह पल भर था मुझको यम-यातना ...
खण्डित था चाप पड़ा धरती पर।
सीता के गर्व का
अलौकिक वह पहला क्षण
अब भी है लगता बहुमूल्य मुझे
राम हुए थे मेरे
उस क्षण में।
राम - हाँ, सीते...!
और उसी क्षण में
सीता भी राम की हुई थी।
सच में... अमूल्य वह क्षण तो
पूरे...जीवन की निधि है।
और वह... पाणि-परस पहला -
मीठी रसधारा वह राशि-राशि
अब भी है बहती
रग-रग में... रक्त की शिराओं में
लय बनकर
सुख बनकर
आदिम स्पर्श वह प्राणों का दाता है
आज भी।
किन्तु प्रिये !
वे सब हैं सुधियों के अन्तरीप।
सूर्योदय के वे पहचाने क्षण
कब के हैं बीत चुके।
और आज ...
पर... सीते !
यह क्षण भी अपना है साथ-साथ -
लगता है पिछले उस आदिम क्षण का ही
विस्तार है।
आओ, इसे बाँध लें
अपने इस अनुरागी बन्धन में।
[एकाएक स्वर में दैवी आवेश आ जाता है]
समय-चक्र !
हे यम के कालचक्र !
टू रुक जा...
देता आदेश तुझे राम है।
होती हो... हो जाये सृष्टि-प्रलय
शेष रहे केवल यह क्षण।
सीता - नहीं राम !
शाश्वतता शुभ की भी श्रेय नहीं।
घूम रहा कालचक्र
परिवर्तन होता है - यही नियम।
सोचो तो
शाश्वत सूर्योदय भी क्या होगा श्रेयस्कर ?
अंधकार जीवन की नियति नहीं
किन्तु...
वहीं सूर्योदय की इच्छा पलती है
और... इसीलिए राम...
अँधियारे में जीना होता अनिवार्य है।
राम, सुनो
यह लीला अवतारी
जिसमें हम दोनों हैं मुख्य पात्र
अब हो समाप्त यहीं।
हर पीढ़ी का होता अपना है एक सत्य
किन्तु वही सत्य जब
टिककर बैठ जाता है
हो जाता बोझ है -
त्याज्य सर्प-केंचुल सा।
हमने जो सत्य जिया
आवश्यक नहीं वही ...
सत्य हो लवकुश का।
राम तुम परात्पर हो... प्रभु हो... नियन्ता हो
और मैं हूँ वह आदिशक्ति
जिससे तुम रचते सृष्टि-लीला यह।
बार-बार हम दोनों आते हैं धरती पर -
मानव बन
मानव की पीड़ा के भोक्ता बन -
संस्कार करते हैं अपनी इस सृष्टि का।
आये थे जैसे हम सहज भाव
किसी यज्ञ-आहुति से
वैसे ही जायेंगे।
मैं उपजी धरती से -
मूल तत्त्व और भाव धरती का;
तुम हो स्वयं यज्ञपुरुष -
वरुणपुत्र -
हवि से थे प्रकट हुए क्षीर बन
अंश-सहित।
सृष्टि इस जन्म की -
हेतु भी समाप्त हुआ -
अब इसे समेटो, प्रिय !
कालरात्रि बीत रही राम यह -
देखो है आ रही
नई सूर्य-रश्मि लिये
विमल प्रभाती भी।
दिन यह जो आया है
होगा यह और अधिक उत्पीड़क।
इसकी उत्तेजना मानव बन सहन करो।
साधारण हो जाओ
भोगो ये पीड़ाएँ
और...
लीलाधाम लौट चलो।
साधारण होना ही होता है ईश्वरत्व।
[गवाक्ष से उषा की लालिमा कक्ष में दिखाई देती है। तभी उस एकान्त को भंग करती शंख और घण्टों की ध्वनि उठती है, स्वस्ति-वाचन गूँजता है। सारा वातावरण चन्दन और अगरु-गन्ध से भर जाता है। सीता की आकृति पारदर्शी हो राम की देह में समा जाती है। अंतर्कक्ष में में सीता की स्वर्ण-प्रतिमा खण्ड-खण्ड हो बिखर जाती है। राम के मन में सीता के अंतिम शब्द गूँज बनकर बार-बार घूमते हैं]
साधारण होना ही होता है... ईश्वरत्व।
हाँ, राम !
साधारण होना ही...
होता है... ईश्वरत्व
ईश्वरत्व...ईश्वरत्व...
['ईश्वरत्व' शब्द कक्ष की छत से टकराकर, दीवारों से टकरा-टकरा कर और अन्त में वातायन से एक मन्त्रध्वनि बनकर बिखर-बिखर जाता है - दूर तक आक्षितिज फैलता जाता है]