कहियत भिन्न न भिन्न / भाग 6 / कुमार रवींद्र
दृश्य-छह
उत्तर-कथन - फिर दिन आया -
आकाश सूर्य हो गया -तपा
आस्थाएँ पीड़ित हुईं
किन्तु वे रहीं शान्त।
अंधे भविष्य की दिनचर्या भी हुई मौन...
मानव का निश्चय हुआ सजग
आग्रह सारे हो गये क्लान्त
हो गयीं शिथिल सब इच्छाएँ।
अद्भुत घटनाएँ हुईं -
सभी पीड़ाओं की -
पर मौन शान्त मन उनसे अस्थिर हुआ नहीं।
हो गयी दृष्टि निरपेक्ष सहज।
काया-मन से भी परे सूक्ष्म
जो तत्त्व-प्राण
वह देख रहा होकर तटस्थ
सम्बन्धों की दिनचर्या को।
हो गयीं कूर्म मन की गतियाँ -
हट गये क्षितिज
विस्तार हुआ अपलक अनन्त संज्ञाओं का।
दिन बीता
किरणें दूब रहीं सरयू-जल में
हैं राम खड़े वातायन में
सम्पूर्ण मौन -
चलती अन्दर है मौन क्रिया आस्थाओं की -
होता है वार्तालाप जानकी-संग ...
हर पल।
[राम अन्धकार से घिरे उस मौन संलाप को सहज प्रसन्न मुद्रा में सुन रहे हैं - सीता की छायाकृति से संलाप कर रहे हैं]
राम - हाँ, सीते !
दिन यह था सच में ही अद्भुत पीड़ाओं का।
और उन्हें जीकर मैं
साधारण हो गया पूर्ववत।
सारा ही आडम्बर - अहंकार
प्रभुता का
सड़े हुए लुगड़े सा झड़ गया।
कितना हो गया सहज सूर्योदय होना अब।
समय-चक्र पूरा है घूम चुका
और थकी स्मृतियाँ
देखो, अब कैसी हैं शान्त पड़ीं -
भोले जल-शिशुओं सी।
किन्तु...
कैसा दुर्धर्ष-हठी
था अशान्त जल-प्लावन
जिसमें मैं डूबा था।
लौट गया आकर वह
आदिम सूर्यास्तों का अहंकार -
कैसा था आकुल वह चक्रवात!
गूँज कहीं दूर
किसी गहरे अवकाश में
अब भी है काँप रही।
हाँ, सीते !
यह दिन था मर्मान्तक कष्टों का।
सीता - राम मुझे ज्ञात है -
आये थे कालपुरुष...
मृत्यु-दूत...
[पारदर्शिका में दृश्य उभरता है। अयोध्या के सभा-भवन में राम का अन्तर्कक्ष। राम गहरे मौन में डूबे बैठे हैं। लक्ष्मण भी पास बैठे हैं। राम एकाएक कहते हैं]
राम - हाँ, लक्ष्मण !
कल सीता आयी थी रात में।
मेरा विश्वास करो...
स्वप्न में नहीं - सचमुच ही।
[लक्ष्मण कुछ कहें, इससे पूर्व ही प्रतिहारी आकर सन्देश देता है]
प्रतिहारी - क्षमा करें, देव !
एक विप्रवर द्वार पर उपस्थित हैं।
राम - लक्ष्मण !
तुम स्वयं जाओ
सादर ले आओ उन्हें।
[लक्ष्मण जाते हैं। कुछ क्षणों में ही एक विप्रवेशधारी व्यक्ति को पूरे सम्मान के साथ लेकर आते हैं]
ब्राह्मण - राघव ! एकान्त मुझे चाहिए...
पूरा एकान्त
जब तक मैं रहूँ यहाँ
कोई भी नहीं आये... ऐसा आदेश दें।
राम - जाओ सौमित्र !
रहो द्वार पर उपस्थित
स्वयं प्रहरी बन
और...
[राम की बात काटकर ब्राह्मण बोलता है]
ब्राह्मण - जो भी व्यक्ति आएगा...
अन्दर इस कक्ष में
जब तक हम वर्तारत
मृत्युदण्ड का होगा भागी वह।
रघुपति का ऐसा आदेश है।
[लक्ष्मण बाहर जाते हैं। राम और ब्राह्मण में, जो वास्तव में कालपुरुष हैं, वार्तालाप चलता है। नेपथ्य में ऋषि दुर्वासा का भयंकर रोषपूर्ण स्वर सुनाई देता है]
दुर्वासा - दुर्विनीत लक्ष्मण !
तू... रोक रहा है... मुझको।
दुर्मति, तुझे ज्ञात नहीं
ब्रह्मा या विष्णु या महेश भी
रोक नहीं सकते हैं मेरी गति।
है अबाध मेरा हर ओर गमन।
कैसा है राम यह !
कैसी है उसकी यह मर्यादा !
मेरा भी तिरस्कार -
स्वागत को स्वयं नहीं आया वह
और... अब
रोक रहा तू मुझे जाने से।
राजा का विरुद यही
कोई भी व्यक्ति उसे मिल सकता जब चाहे।
पूरी इस नगरी को ध्वस्त अभी करता हूँ -
प्रजा सहित राजा यह दण्डनीय।
[पारदर्शिका ओझल हो जाती है। राम कहते हैं]
राम - वैदेही...!
और फिर ...
लक्ष्मण स्वयं आये थे कक्ष में
उत्पीड़क वह प्रसंग -
लक्ष्मण को मृत्यु-दण्ड...
गुरुवर की आज्ञा से
त्यागा था मैंने सौमित्र को
और...
उसी क्षण जाकर सरयू-तीर
लक्ष्मण ने त्याग दिए प्राण थे
और मैं हुआ था...
स्वजनघाती फिर।
सीता - हाँ, राघव !
लक्ष्मण को पहले ही जाना था।
जीवन भर पाला था दास्य भाव ही उसने -
उसके बिन
कैसे वह जीवित रह पाता।
उसने थीं झेलीं वे सारी पीड़ाएँ
जो हमने भोगी थीं -
उनके अतिरिक्त भी।
जीवन भर रहा था अभिन्न हम दोनों से।
उग्र रूप वह था रुद्रावतार -
याद मुझे...
आये थे परशुराम...
और फिर...
जब था वनवास मिला
और जब आये थे भरत भाई चित्रकूट...
पंचवटी में मैंने भी की थी, हाँ
उससे वंचना...
कैसा वह तड़पा था -
वह प्रसंग असहनीय !
लक्ष्मण अनुरागी था -
मेरा प्रिय देवर था...
राम - हाँ, सीते !
लक्ष्मण तो था मेरा अन्तर्मन -
मुझमें जो उग्र प्रश्न उगते थे
उनका था साक्षी वह।
शेष-तुल्य
वह ही आधार था अपने इस जीवन का
सीता - राम ! चलो, लौट चलो !
राम - हाँ, सीते !
अब तो है चलना ही -
सरयू है टेर रही।
[अंधकार गहरा जाता है। वातायन से दिखती सरयू के जल में हलचल होती है। एक मधुर संगीत-ध्वनि आती है। नदी में आवाहन-मन्त्र गूँजते हैं]
आवाहन-स्वर -
आओ राम...
जल हो लो -
जल ही है मूल तत्त्व सृष्टि का
जल ही संयोजन है
जल ही है संकुचन
जल से ही जीवन है
जल से ही मृत्यु है
जल ही है सूर्य और जल ही है कालरात्रि
जल से ही सृष्टि उदित होती है
जल में ही होती है वह विलीन
जल में ही शयन
और लीलाकमल जल में ही
जल ही है आत्म-तत्त्व
जल ही है विश्वरूप
आओ राम !...
आओ राम !... आओ राम !
[एक निरन्तर प्रवहमान स्वर-वलय बनता है। राम की आकृति उससे घिरकर स्वर-उर्मियों में समा जाती है। मंगल-ध्वनि गूँजती है]
उत्तर-गान - लीलायुग पूरा हुआ एक -
अवतार-पुरुष ने जलसमाधि ली सरयू में।
ईश्वर के मानव होने का
संकल्प हुआ यों पूर्णकाम -
धरती की आस्था हुई सजग।
युगपुरुष राम ने
सूर्योदय का मन्त्र रचा -
वह मन्त्र हुआ संकल्प नयी आस्थाओं का
युग-युग तक जिससे
स्वप्नशील होगा मानव।
यह सिया-राम की पुण्यकथा -
आदर्शों की...
मर्यादा की गौरवगाथा;
मानव-पीड़ा का
उससे उपजी आस्था का यह सामवेद
युग-युग कल्याणी होगा।
जब-जब मानव के मन में
दुविधा उपजेगी
जब-जब सूर्यास्त हवाओं में गहराएगा
जब-जब विषाद की लहरें
मन को तोड़ेंगी
जब-जब होगा विश्वास त्रस्त
आसुरी शक्तियाँ
जब-जब भी होंगी सचेष्ट
जब-जब मायामृग लौटेंगे
जब-जब धरती बंजर होगी - अकुलायेगी
जब-जब भी होंगे शिला प्राण
तब-तब ...
यह कथा मुखर होगी -
फिर से होगा अवतार
सूर्य के सपनों का।