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कहिया धरि / आभा झा

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घटना घटले छल दिल्ली मे
खन कठुआ आ उन्नाव गेलै,
तिल-तिल मरलै तेलंगाना
हाथरसक हरियर घाव भेलै।

दुर्दान्त दैत्य ओ नर पिशाच
कलिखा पोतै मानवता पर,
थू-थू करैछ सौंसे दुनियाँ
अधमक निकृष्ट धृष्टता पर।

बुट्टी-बुट्टी नोचय सभ मिलि
मिझबै पैशाचिक आगि अपन,
गिद्धो सँ नीच बनल मानुष
धिक् धिक् धिक्कार एहन जीवन!

पाथर पर टघरल शोणित सँ
खकस्याह लहास चिकड़ि पूछय,
की दोष हमर? की दोष हमर?
एतबे कहिकहि रहि-रहि कहरय।

आक्रोश उठल जनमानस मे
अखबारक खबरि बनल रहतै,
बंशी पथने तैयो पापी
सुनसान सघन जंगल तकतै।

ककरो मचोड़ि फेकत वन मे
ककरो खधिया में गाड़ि देतै,
परिजन प्रतिकार करत तकरो
षड्यंत्र रचा कऽ मारि देतै।

अन्हराएल न्याय प्रणाली मे
चलतै एहिना खंजर-रेती
हम प्रश्न पुछै छी, कहिया धरि?
दानवक ग्रास बनतै बेटी?