कहीं किसी ने गाया / अज्ञेय
कहीं किसी ने गाया :
'मैं तेरा हूँ-तू मेरा है
कैसा यह प्रेम घनेरा है!'
मेरा मन भर आया...
प्रियतम, कभी तुम्हारे मुख से ये ही शब्द सुने थे मैं ने-
अनजाने में मन के धागे से यह बेध गुने थे मैं ने
आज चीर परदा अतीत का यही वाक्य तारे-सा चमका :
'मैं तेरा हूँ-तू मेरा है, कैसा यह प्रेम घनेरा है!'
जाने किस विस्मृति के क्षण में, किस सुकृति के आकर्षण में,
या कि देव के चरण-स्तवन में,
प्राण, तुम्हारे मुख-पाटल से
हिमकण-जैसे कोमल ज्योत्स्ना जैसे चंचल
परिमल से वे शब्द झरे थे!
'मैं तेरा हूँ-तू मेरा है, कैसा यह प्रेम घनेरा है!'
मेरे इस लम्बे जीवन में दो स्मृतियाँ हैं, प्राण, तुम्हारी :
उन से पहले, उन से आगे एक निविड रजनी है सारी!
-एक, जब कि पहले-पहले ही सहसा चौंक मुझे लखते ही,
मानो बुझ कर, मानो जल कर, अपने ही में सिमट-सँभल कर
बैठ रहे थे तुम, नीरव, नत-मस्तक!
मैं-हाँ, मैं भी बोल नहीं पायी थी कब तक!
-और दूसरी, जब मैं कौशल से छिपे-छिपे आ निकट तुम्हारे, छल से
वे दो वाक्य सुने थे, जाने किस के प्रति उच्चारित
किन्तु जिन्हें सुन मेरा कण-कण हुआ कंटकित, पुलकित:
'मैं तेरा हूँ-तू मेरा है, कैसा यह प्रेम घनेरा है!'
आज चीर परदा अतीत का यही वाक्य तारे-सा चमका;
कहीं किसी ने गाया :
'मैं तेरा हूँ-तू मेरा है, कैसा यह प्रेम घनेरा है!'
मेरा मन भर आया...
लाहौर, 1936