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कहीं कुछ ऐसा है, जो खो गया है / दिनेश्वर प्रसाद
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कहीं कुछ ऐसा है, जो खो गया है
वही शब्द हैं
वही व्याकुलता
हवा में मुट्ठी बान्धकर
अरूप विचारों को पकड़ने की वही चाह
धीमी आवाज़ों की धड़कनों को
अर्थ में ढालने की वही ललक
लेकिन क्या हो गया है
जो सब थके हैं
एक गहराती हुई उदासी
और सहमती हुई हवा
एक रुकता हुआ बहाव
और ठहरती हुई गन्ध
पता नहीं
पलाश के फूलों-सी वह पिछली आग
कब फैलेगी
कब जलेगी उदासी
कब धुँआएगा मौन
कब फिर वह बीता समय आएगा ?
( 8 फरवरी, 1984)