मेरी नींद सरदर्द के भीतर खुली. सरदर्द एक कमरा है जहां मुझे रहना पड़ता है क्योंकि मैं किसी और जगह के किराए का खर्च नहीं उठा सकता. एक-एक बाल सफ़ेद होने की हद तक दुखता है. एक दर्द बना रहता है, उस पेचीदा गुत्थी में जिसका नाम दिमाग है और जो इतनी सारी दिशाओं में इतने सारे काम करना चाहता है. दर्द हल्के नीले रंग के आसमान में लटकता एक अर्ध-चन्द्र भी है; मेरे चेहरे का रंग उड़ गया है; मेरी नाक नीचे की तरफ संकेत कर रही है; पानी का पता लगाने वाली पूरी छड़ी जमीन के नीचे के सोते की तरफ मुड़ रही है. मैं गलत जगह पर बने एक मकान में रहने लगा था; मेरे बेड के ठीक नीचे, ठीक मेरे तकिए के नीचे एक चुम्बकीय खम्भा है और जब आस-पास का मौसम बिगड़ जाता है तो बेड के ऊपर मैं आवेशित हो जाता हूँ. अक्सर मैं यह कल्पना करने की कोशिश करता हूँ कि कोई आकाशीय हड्डी बैठाने वाला मेरी गर्दन और रीढ़ के जोड़ पर एक करिश्माई पकड़ द्वारा मुझे चिकोट रहा है, एक ऎसी पकड़ जो हमेशा के लिए ज़िंदगी सुधार देगी. मगर सरदर्द का घर अभी बट्टे खाते में डाले जाने के लिए तैयार नहीं है. पहले मुझे इसके भीतर एक घंटे, दो घंटे, आधा दिन तक रहना होगा. अगर पहले मैनें इसे कमरा कहा हो तो उसे घर में बदल लीजिए. मगर अब सवाल यह है : क्या यह पूरा एक शहर ही नहीं है? यातायात असहनीय रूप से धीमा है. ब्रेकिंग न्यूज प्रसारित हो चुकी है और कहीं कोई टेलीफोन बज रहा है.
(अनुवाद : मनोज पटेल)