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कहीं चाँद जाल में फँस गया / विपिन सुनेजा 'शायक़'
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कहीं चाँद जाल में फँस गया,
कहीं चाँदनी हुई बंदिनी
कोई भोर का तो पता करो
कि रुकी-रुकी सी है यामिनी
न किसी की आँख में नींद है
न किसी के दिल में उमीद है
यहाँ हर कोई है डरा हुआ
ये है रात या है पिशाचिनी
किसी शाप का है असर कि कुछ
न सुनाई दे न दिखाई दे
कहीं भूख से शिशु रो रहा
कहीं बिक रही कोई कामिनी
न तो चूड़ियों में उमंग है
न सिंदूर में कोई रंग है
न वो प्रेम है न वो रूप है
न सुहाग है न सुहागिनी
वो मधुर-मधुर से जो गीत थे
कहीं शोर में सभी खो गए
न वो स्वर रहे न वो साज़ हैं
न वो राग है न वो रागिनी