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कहीं ज़रा-सा अँधेरा भी कल की रात न था / शहरयार
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कहीं ज़रा सा अँधेरा भी कल की रात न था
गवाह कोई मगर रौशनी के साथ न था।
सब अपने तौर से जीने के मुद्दई थे यहाँ
पता किसी को मगर रम्ज़े-काएनात न था
कहाँ से कितनी उड़े और कहाँ पे कितनी जमे
बदन की रेत को अंदाज़-ए-हयात न था
मेरा वजूद मुनव्वर है आज भी उस से
वो तेरे क़ुब का लम्हा जिसे सबात न था
मुझे तो फिर भी मुक़द्दर पे रश्क आता है
मेरी तबाही में हरचंद तेरा हाँथ न था