कहीं नहीं मिली / मधु गजाधर
कभी
पेड़ों की छाँव तले
लगता था
एक बाज़ार
मेरे गाँव में,
जहाँ
बिकती थी खुशियाँ,
बंटता था प्यार,
चखाए जाते थे
रीती रिवाज़,
और
हवा में उडाये जाते थे
खुशियों से भरे गुब्बारे
जहाँ
छिड़की जाती थी ,
दूआओं की चाशनी
और हम सब
बड़ी बेसब्री से
इंतज़ार करते थे
उस बाज़ार का
थैले भर भर के
ढेर सी खुशहाली
लाया करते थे
जिस में से कुछ
खुशहाली
अम्मा
बड़े प्रेम से
आने वाली पीड़ी के लिए
सहेज सहेज कर देती थी
और फिर एक दिन
अम्मा चली गयी
दूर...बहुत दूर,
फिर कभी
वापिस ना आने के लिए
और जाने से पहले
भूल गयी बताना
कि
कहाँ रखती थी वो
सहेज सहेज कर
उन खुशियों को,
हमने तो
सब के दिल
टटोल डाले
सब रिश्ते खोद डाले
त्योहारों को
छान छान कर देखा
लेकिन अम्मा
तेरी सहेजी वो खुशियाँ
हमें आजतक
कहीं नहीं मिली