सोचती हूं अगली बार
उसे देख लूंगी ठीक से
निरख-परख लूंगी
जान लूंगी 
पूरी तरह समझ लूंगी
पर 
सामने आने पर 
निकल जाता है वक्त 
देखते-देखते
कि देख ही नहीं पाती उसे पूरा
एक निगाह
एक स्वर 
या आध इंच मुस्कान में ही
उलझकर रह जाती हूं
और 
वह भी 
किसी बहाने लेता है हाथ हाथों में
और पूछता है
क्या इसी अंगूठे में चोट है... 
कहां है चोट ... ओह ... यहां
अरे
तुम्हारी मस्तिष्क रेखा तो सीधी 
चली जाती है आर-पार
इसीलिए करती हो इतनी मनमानी
खा जाती हो सिर
और फिर ... वक्त आ जाता है
चलने का
कि गर्मजोशी से हाथ मिलाता है वह
भूलकर मेरा चोटिल अंगूठा
ओह... 
उसकी आंखों की चमक में 
दब जाता है मेरा दर्द 
और सोचती रह जाती हूं मैं
कि यह जो दबा रह जाता है दर्द
जो बचा रह जाता है 
जानना 
देखना उसे जीभर कर 
कहीं यही तो नहीं है प्यार ...