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कहीं से तो रोशनी आये / गुलाब सिंह
Kavita Kosh से
अँगुलियाँ उकसा रहीं बाती
कहीं से तो रोशनी आए!
पंक्ति बाँधे चहचहाते
धूप के चर्चे गए गुम,
देर तक अपने अँधेरों में
घिरे रह गए हम-तुम,
जब उठीं बातें दिये की
हवा ने पत्ते गिराए।
हाथ फैले हुए सहसा
हुए पूरन काम,
चार आँखें चू पड़ीं
काँपे अधर ‘हे राम’
सूखते पोखर किनारे
कोई रह-रह तड़फड़ाए।
पेट पर रख हाथ
कच्ची नींद में सोई
बाल-बच्चेदार घर की
पूर्णिमा रोई
क्या पता है रात कितनी
भजन या लोरी सुनाए?