भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कहीं से बोलता कोई नहीं है / शीन काफ़ निज़ाम
Kavita Kosh से
कहीं से बोलता कोई नहीं है
तो बस्ती में भी क्या कोई नहीं है
मिरा जी तुझ से भी भरने लगा है
अगरचे दूसरा कोई नहीं है
कई सदियों की दूरी दरमियाँ है
बज़ाहिर फ़ासला कोई नहीं है
मैं सहरा में सदाएँ दे रहा हूँ
मिरा भी हमनवा कोई नहीं है
क़ुतुब ख़ानों में अब रख दो हमें भी
हमें भी देखता कोई नहीं है
सभी के दम घुटे जाते हैं लेकिन
खिड़कियाँ खोलता कोई नहीं है