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कही का करी का चली कौन राहे / सूर्यदेव पाठक 'पराग'

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कही का, करी का, चली कौन राहे
अजीबे दशा बा भइल आदमी के

पराया के आशा कइल छोड़, खुद पर
उचित बा भरोसा कइल आदमी के

जरल जे बना के स्वयं प्राण-बाती
हवा के थपेड़ा सहल जिन्दगी भर
हटल बा अन्हारा, भइल बा उजाला
कहीं खून बाटे जरल आदमी के

कबो हार होला, कबो जीत होला
मगर हार माने कबो ना, बढ़े जे
समय साथ देला, विजेला बनेला
अकारथ ना होला चलल आदमी के

लिखेला सभी एगो इतिहास आपन
रचल जिन्दगी भर के होला कहानी
चमकते रहेला युगन ले हमेशा
सुयश ना भइल बा मइल आदमी के

जगह छोट होखे, तबो हो सकेला
गुजारा कइल आपसी दोस्ती से
मगर आदमी आदमी तब बनेला
जबे आसमाँ अस हो दिल आदमी