कहूँगा कि... / सुशान्त सुप्रिय
कहूँगा
एक-न-एक दिन ज़रूर कहूँगा
किसी-न-किसी मंच से
वे सब ज़रूरी बातें
जो मुझे कहनी हैं
एक-एक स्वाद की बात कहूँगा
एक-एक गंध की बात कहूँगा
एक-एक स्पर्श की बात कहूँगा
इस धरती का एक
सामान्य-सा आदमी
होने के नाते
मैं कहूँगा कि
सबके सुख-दुख
सबकी ख़ुशियाँ
साँझी हों
कि 'बुद्ध मुस्कराएँ' तो
केवल मूर्तियों में
परमाणु-विस्फोटों में नहीं
कि शब्दों के ऐसे
विकृत प्रयोग से
नष्ट न हो जाएँ
सभी अर्थ
बरबाद न हो जाए
हमारी भाषा
कि रास्ते मौजूद होने के बाद भी
कहीं हमारे पैर ही न भूल जाएँ
कि जाना किधर है
कि जब मैं कह रहा होऊँ
ये ज़रूरी बातें
तो कहीं ऐसा न हो
कि असल में मैं चुप होऊँ
और बोल रही हो
केवल मेरी भाषा
कि उस समय
मेरी आवाज़ में
न उग आएँ ऐसे काँटे जो
सितारों को चुभ जाएँ...