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कहै छै पुतोहियां / मृदुला शुक्ला

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कहै छै पुतोहियां, बुढ़बा बैठलोॅ छै एंगना में।
गड़लोॅ छै सम्पत की, परान लागलोॅ छै जेकरा मंे?
कैहियौं तेॅ केकरा? जइयौॅ तेॅ केना?
करै छियै कोशिश उठै के जेना,
दरदोॅ के कंपनी उठै छै ठेहुना में।
देखै छियै जोन दीस, अंधारे देखाय छै,
सम्मे रंग जिनगी के एक्केरं बुझाय छै;
कहै छै छोटका पोतवां अ पोतिया नें
बुढ़बा ताकै छै सोझे टुकुर-टुकुर घरिया में।
गाँठी में पैसा तेॅ दुनियाँ लागै अपना रं।
देह में ताकत तेॅ सब्भे होय छै अपना रं।
होय केॅ दलिद्दर; आय फेंकलोॅ छी।
फूटलोॅ फूँकना रं ऐंगना में।
दोख पुतहओ के नैद्ध दोख जमानो के नै;
मारै लेॅ चाहै छै उमिर उड़क्का;
खेलै लेॅ चाहै छै पोतियां एक्का-दुक्का।
बैठला सें हमरा, मन मरुआय छै;
घरोॅ में रहि-रहि पुतोहियां औनाय छै;
वही सें कहै छै पुतोहिया नें -
बुढ़बा बैठलोॅ छै एंेगना में।
मजकि बड़का बात हमरा बुझाय छै;
झुरियैलोॅ हमरोॅ मुँह झोसेंलोॅ हमरोॅ अंग में,
आँखी के हररियैलोॅ, पानी के रंग में;
शायद आपनोॅ अगला चेहरा देखी
सब्भे डरी-डरी जाय छै।
सब्भैं तही सें हमरा भगाय छै।