कहो कैसे मन को समझा लूँ?
झंझा के द्रुत आघातों-सा, द्युति के तरलित उत्पातों-सा
था वह प्रणय तुम्हारा, प्रियतम!
फिर क्यों, फिर क्यों इच्छा होती बद्ध इसे कर डालूँ?
सान्ध्य-रश्मियों के उच्छ्वासों, ताराओं की कम्पित साँसों-सा
था मिलन तुम्हारा, प्रियतम!
फिर क्यों, फिर क्यों आँखें कहतीं, उर में इसे बसा लूँ?
उल्का कुल की रज परिमल-सी, जल-प्रपात के उत्थित जल-सी,
थी वह करुणा-दृष्टि तुम्हारी-
फिर क्यों, प्रियतम! अन्तर रोता युग-युग उस को पा लूँ?
कहो कैसे मन को समझा लूँ?
मार्च, 1932