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कहो न ये के मोहब्बत है तीरगी से मुझे / जमील मज़हरी
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कहो न ये के मोहब्बत है तीरगी से मुझे
डरा दिया है पतिंगों ने रौशनी से मुझे
सफ़ीना शौक़ का अब के जो डूब कर उभरा
निकाल ले गया दरिया-ए-बे-ख़ुदी से मुझे
है मेरी आँख में अब तक वही सफ़र का ग़ुबार
मिला जो राह में सहरा-ए-आगही से मुझे
ख़िरद इन्ही से बनाती है रह-बरी का मिजाज़
ये तजरबे जो मुयस्सर हैं गुम-रही से मुझे
अभी तो पाँव से काँटे निकालता हूँ मैं
अभी निकाल न गुलज़ार-ए-ज़िंदगी से मुझे
ज़बान-ए-हाल से कहता है नाज़-ए-इश्वा-गरी
हया छुपा न सकी चश्म-ए-मज़हरी से मुझे
बराए दाद-ए-सुख़न कास-ए-सवाल हो दिल
ख़ुदा बचाए 'जमील' इस गदा-गरी से मुझे