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कह तो देते हो कि मैं बातें / पूजा बंसल

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कह तो देते हो कि मैं बातें समझ पाती नहीं
पर मेरी नासमझियाँ क्या रिश्तें सुलझाती नहीं

दिन भी था लम्बा बहुत बीता नहीं पर कट गया
हिज्र की रातें ये ज़ालिम आके फिर जाती नहीं

कुछ कलाम ए आशिक़ी महसूस करना सीख लो
बे-वजह तो ये हवाएँ तुमको छू जाती नहीं

कोशिशें टकरा के तो सागर की मौजों ने भी की
साहिलों को ख़ुद में लेकर पर वो बह पाती नहीं

ये हवस सय्याद सी और कुछ है पहरे पर शज़र
तितलियाँ मेरी कहीं पर खुल के उड़ पाती नहीं

सरफिरा सा एक रस्ता मोड़ पर हर मुड़ गया
मंज़िलें क्यूँ साथ उसके मेरी मुड़ पाती नहीं

तेरी यादों के बुने आँचल में ही महफ़ूज़ हूँ
और ‘पूजा’ में कोई शय दिल से टकराती नहीं