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कह दो न इक बार / कृष्णा वर्मा

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ज़रा सोचो तो
तुम्हारी ज़िद के चलते
इस रूठा-रूठी के दौर में
जो मैं हो गई धुँआ
तो कसम ख़ुदा की
छटपटाते रह जाओगे
क्षमा के बोल कहने को
लिपटकर मेरी मृत देह से
गिड़गिड़ाओगे माफ़ी को
पर अफसोस
चाहकर भी कर न पाऊँगी
तुम्हारी इच्छा को पूरा
नाहक ढह जाएगा तुम्हारा पौरुष
अहं की टूटी खाट पर
और तुम्हारे दुख का कागा
लगातार करेगा काँय-काँय
तुम्हारे मन की मुँड़ेर पर
अनुताप में जलते तुम
जुटा न पाओगे हिम्मत उसे उड़ाने की
मुठ्ठी भर मेरी राख को
सीने से लगाकर
ज़ार-ज़ार रोएगी तुम्हारी ज़िद
और मेरी असमर्थता
पोंछ न पाएगी
तुम्हारे पश्चात्ताप के आँसू
सुनो, समय रहते अना को त्याग
समझा क्यों नहीं लेते अपनी
छुई-मुई हुई ज़ुबान को कि बोल दे
खसखस -सा लघुकाय शब्द
जिसका होठों पर आना भर
मुरझाते रिश्ते को कर देते है
फिर से गुलज़ार
सुनो, कह क्यों नहीं देते इक बार
सॉरी।