भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कह रही है हश्र में वो आँख शर्माई हुई / अमीर मीनाई
Kavita Kosh से
कह रही है हश्र में वो आँख शर्माई हुई
हाय कैसे इस भरी महफ़िल में रुसवाई हुई
आईने में हर अदा को देख कर कहते हैं वो
आज देखा चाहिये किस किस की है आई हुई
कह तो ऐ गुलचीं असीरान-ए-क़फ़स के वास्ते
तोड़ लूँ दो चार कलियाँ मैं भी मुर्झाई हुई
मैं तो राज़-ए-दिल छुपाऊँ पर छिपा रहने भी दे
जान की दुश्मन ये ज़ालिम आँख ललचाई हुई
ग़म्ज़ा-ओ-नाज़-ओ-अदा सब में हया का है लगाव
हाए रे बचपन की शोख़ी भी है शर्माई हुई
वस्ल में ख़ाली रक़ीबों से हुई महफ़िल तो क्या
शर्म भी जाये तो जानूँ के तन्हाई हुई
गर्द उड़ी आशिक़ की तुर्बत से तो झुँझला के कहा
वाह सर चढ़ने लगी पाँओं की ठुकराई हुई