Last modified on 27 जुलाई 2008, at 02:09

क़तरे को इक दरिया समझा / देवमणि पांडेय

क़तरे को इक दरिया समझा मैं भी कैसा पागल हूँ

हर सपने को सच्चा समझा मैं भी कैसा पागल हूँ


तन पर तो उजले कपड़े थे पर जिनके मन काले थे

उन लोगों को अच्छा समझा मैं भी कैसा पागल हूँ


मेरा फ़न तो बाज़ारों में बस मिट्टी के मोल बिका

ख़ुद को इतना सस्ता समझा मैं भी कैसा पागल हूँ


बीच दिलों के वो दूरी थी तय करना आसान न था

आँखों को इक रस्ता समझा मैं भी कैसा पागल हूँ


पाल-पोसकर बड़ा किया था फिर भी इक दिन बिछड़ गए

ख़्वाबों को इक बच्चा समझा मैं भी कैसा पागल हूँ