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क़त्ल का इलज़ाम मेरे सिर पे है / विनय मिश्र
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क़त्ल का इलज़ाम मेरे सिर पे है
कुछ न कुछ इनाम मेरे सिर पे है
ख़ौफ़ दिल में है ये उठते-बैठते
यानी ग़म की शाम मेरे सिर पे है
जिससे सर में दर्द है बेइंतिहा
आजकल वो काम मेरे सिर पे है
फ़ुर्सतों का अब ज़माना लद गया
अब कहाँ आराम मेरे सिर पे है
हिल उठी धरती अचानक सोच की
इक नया पैग़ाम मेरे सिर पे है
गर्म होती जा रही हैं अटकलें
सर्दियों की शाम मेरे सिर पे है