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क़दम ज़मीं पे न थे राह हम बदलते क्या / मनचंदा बानी
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क़दम ज़मीं पे न थे राह हम बदलते क्या
हवा बंधी थी यहाँ पीठ पर संभलते क्या
फिर उसके हाथों हमें अपना क़त्ल भी था क़ुबूल
कि आ चुके थे क़रीब इतने बच निकलते क्या
यही समझ के वहां से मैं हो लिया रुख़सत
वो साथ चलते मगर दूर तक तो चलते क्या
तमाम शह्र था इक मोम का अजायबघर
चढ़ा जो दिन तो ये मंज़र न फिर पिघलते क्या
वो आसमां थे कि आँखें समेटतीं कैसे
वो ख़ाब थे कि मिरी ज़िन्दगी में ढलते क्या
निबाहने की उसे भी थी आरज़ू तो बहुत
हवा ही तेज़ थी इतनी चराग़ जलते क्या
उठे और उठ के उसे जा सुनाया दुख अपना
कि सारी रात पड़े करवटें बदलते क्या
न आबरू-ए-तअल्लुक़ ही जब रही ‘बानी’
बगैर बात किये हम वहां से टलते क्या