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क़द्र रखती न थी मता-ए-दिल / मीर तक़ी 'मीर'
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क़द्र रखती न थी मता-ए-दिल
सारे आलम1 को मैं दिखा लाया
दिल के इक क़तरा2 खूँ नहीं है बेश
एक आलम के सर बला लाया
सब पे जिस बार ने गिरानी3 की
उस को ये नातवाँ4 उठा लाया
दिल मुझे उस गली में ले जाकर
और भी खाक में मिला लाया
इब्तिदा5 ही में मर गए सब यार
इश्क़ की कौन इंतिहा6 लाया
अब तो जाते हैं बुतकदे7 से मीर
फिर मिलेंगे अगर खुदा लाया
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