क़फ़स से छुटने पे शाद थे हम के / ज़ाहिद
क़फ़स से छुटने पे शाद थे हम के लज़्ज़त-ए-ज़िंदगी मिलेगी
ये क्या ख़बर थी बहार-ए-गुलशन लहू में डूबी हुई मिलेगी
जिन अहल-ए-हिम्मत के रास्तों में बिछाए जाते हैं आज काँटे
उन्ही के ख़ून-ए-जिगर से रंगीन चमन की हर इक कली मिलेगी
वो दिन भी थे जब अँधेरी रातों में भी क़दम राह-ए-रास्त पर थे
और आज जब रौशनी मिली है तो ज़ीस्त भटकी हुई मिलेगी
नई सहर के हसीं सूरज तुझे ग़रीबों से वास्ता क्या
जहाँ उजाला है सीम ओ ज़र का वहीं तेरी रौशनी मिलेगी
कभी तो नस्ल-ओ-वतन-परस्ती की तीरगी को शिकस्त होगी
कभी तो शाम-ए-अलम मिटेगी कभी तो सुब्ह-ए-ख़ुशी मिलेगी
वो हम नहीं हैं के सिर्फ़ अपने ही घर में शमएँ जला के बैठें
वहाँ वहाँ रौशनी करेंगे जहाँ जहाँ तीरगी मिलेगी
तलाश-ए-मंज़िल का अज़्म-ए-मोहकम दलील-ए-मंज़िल-रस्सी है 'ज़ाहिद'
क़दम तो अपने बढ़ाओ आगे खुली हुई राह भी मिलेगी