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क़लक़ आ गया इज़्तिराब आ गया / मेला राम 'वफ़ा'

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क़लक़ आ गया इज़्तिराब आ गया
ये दिल क्या गया इक अज़ाब आ गया

लिफ़ाफ़े में पुर्ज़े मिरे ख़त के हैं
मिरे ख़त का आख़िर जवाब आ गया

इधर बढ़ते बढ़ते बढ़ा दस्त-ए-शौक़
उधर आते आते हिजाब आ गया

कहा उस ने देखा जो दर पर मुझे
कहाँ से ये ख़ाना-ख़राब आ गया

जबीं पुर-शिकन है निगह शोला-रेज़
ये कौन आज ज़ेर-ए-इताब आ गया

सिकंदर नसीबे का है वो फ़क़ीर
तिरे दर से जो कामयाब आ गया

ये आलम हुआ ताबिश-ए-हुस्न से
सवा नेज़े पर आफ़्ताब आ गया

हुए ही थे आमादा तौबा पे हम
कि गर्दिश में जाम-ए-शराब आ गया

हुई क़ाइल-ए-जलवा-ए-तूर ख़ल्क़
सर-ए-बाम वो बे-नक़ाब आ गया

ये क्या कम है ऐ शैख़ मय का जवाज़
वो काबे से उठ कर सहाब आ गया

उठाए गए बज़्म से बुल-हवस
उन्हें शेवा-ए-इन्तिख़ाब आ गया

अदू साथ रहने लगे ऐ 'वफ़ा'
गहन में मिरा आफ़्ताब आ गया