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क़स्बे की साँझ / राजेन्द्र गौतम
Kavita Kosh से
पीपल, बरगद, नीम ये
सब गूलर के फूल
चौरस्ते
अब झूलते
थूहर और बबूल ।
हैण्डल पर
ख़ाली टिफ़िन
घर को चले मुनीम
आसमान पलकें झँपे
गटके हुए अफ़ीम ।
टाँगे, खच्चर, रेहड़ी
मुड़े गाँव की ओर
साँझ हुई
अब थम गया
गुड़-मण्डी का शोर ।
कहाँ बचेंगे टेण्ट में
मज़दूरी के दाम
बैठी लेकर राह में
ठर्रा
ठगिनी शाम ।
क़स्बे में जब से खुली
राजनीति की टाल
अफ़वाहों-सा
फैलता
धूल-धुएँ की जाल ।
चूल्हे-चौके की हुई
खटर-पटर अब बन्द
आँगन में
बस गूँजते
चुप्पी के ही छन्द ।
बर्फ़ सरीखी हो गई
नीचे बिछी पुआल
राम हवाले
भोर तक
इस कुनबे का हाल ।