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क़िताब / इला प्रसाद
Kavita Kosh से
कम्प्यूटर के सामने बैठकर
पत्र, पत्रिकाएँ पढ़ते
सीधे- कुबड़े, बैठे- बैठे
जब अकड़ जाती है देह
दुखने लगती है गर्दन
धुँधलाने लगते हैं शब्द
और गड्ड्मड्ड होने लगती हैं तस्वीरें
तो बहुत जरूरी लगता है
किताब का होना ।
किताब,
जिसे औंधे - लेटे
दीवारों से पीठ टिकाए
कभी भी, कहीं भी
गोदी में लेकर
पढ़ा जा सकता था
सीएडी (कम्प्यूटर एडेड डिसीज़) के तमाम खतरो को
नकारते हुए ।
किताब जो जाने कब
चुपके से
गायब हो गई
मेरी दुनिया से
बहुत याद आई आज !