क़िस्से कहाँ गए वो कहानी कहाँ गई / रामकुमार कृषक
क़िस्से कहाँ गए वो कहानी कहाँ गई,
मिट्टी की सगी गन्ध पुरानी कहाँ गई ।
कहने को दिल वही है, वही है ज़ुबान भी,
खुसरो कबीर मीर की बानी कहाँ गई ।
ग़ालिब का दौर और था ग़ालिब भी और थे,
पूछो न वो अन्दाज़े - बयानी कहाँ गई ।
जो हैं अदीब तोड़ सितारों को ला रहे,
हम हैं कि मुश्ते - ख़ाक भी छानी कहाँ गई ।
महफ़िल में मजमुओं की मिसालों की गूँज है,
चुप्पी जो मानीख़ेज़ है मानी कहाँ गई ।
सागर की आह - वाह के चर्चे हैं सब कहीं,
सहरा की दिली बात बख़ानी कहाँ गई ।
क़ैदी है तलघरों में हवा धूप ताज़गी,
कहिए तो ज़रा शाम सुहानी कहाँ गई ।
आता ज़रूर हाथ मिलाने को हर खुदा,
ऐसी असल में ठान ही ठानी कहाँ गई ।
पैदा हुए बिना ही यहाँ जो बुजुर्ग हैं,
" मुड़ - मुड़ के देखते हैं जवानी कहाँ गई !"
'अपजस अपने नाम' ( 2012 ) नामक किताब में संग्रहित