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क़ीमतें चढ़ती गई हैं इस क़दर बाज़ार की / विनोद तिवारी
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क़ीमतें चढ़ती गई हैं इस क़दर बाज़ार की
ज़िन्दगी बस इक कतरन है किसी अख़बार की
लोग बनते जा रहे हैं गुमशुदा के इश्तिहार
खो गई सारी कथाएँ आदमी के प्यार की
मुफ़लिसी का रोग औषध सिर्फ़ आश्वासन जनाब
आपने क्या ख़ूब सेवा की दिले-बीमार की
जो उन्हें भाए वही कुछ श्रेय है, कथनीय है
वैसे आज़ादी है सबको सत्य के इज़हार की
डूबने वालों को साहिल से बहुत उम्मीद थी
किश्तियाँ लौटी हैं कुछ लेकर ख़बर मँझधार की
ऊपरी मंज़िल में रहने वाले लोगों से कहो
अहमियत ऊँचे भवन में है महज़ आधार की
आप अपने दायरों से मुक्ति तो पा लीजिए
बैठ कर बातें करेंगे फिर किसी विस्तार की