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काँच के टुकड़े / नीरेन्द्रनाथ चक्रवर्ती / टी०पी० पोद्दार

शब्द फट रहे हैं आगे-पीछे
शब्द फट रहे हैं दूर
खून बह रहा है दिन-रात
शहर भर में
इन्ही परिस्थितियों में स्वप्नों का घर

कोई सुखा रहा है
रेलिंग पर नीली साड़ी
और
कोई विचर रहा है
गद्य में, पद्य में
उठाना चाह रहा है
देवालय के गुम्बद को नए रूप में

हम देख रहे हैं
उनके
पैरों के नीचे
बिखरे पड़े हैं
काँच के टुकड़े