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काँटा / प्रतिभा किरण

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एक न एक दिन
हम ढूँढ ही लेंगे वह जगह

जहाँ बीच रास्ते में अटके हैं
कुछ उच्चारित मन्त्र,
पुरखों को अर्पित निवाले

वह जगह जहाँ से
घबराकर लौटते हैं पक्षी,
जहाँ है विस्मृतियों का टीला

जहाँ एक बूढ़ा आदमी
जो दिन में देख सकता है,
अँधेरे में माँगता है मुक्ति

एक जगह जहाँ
बिना ईंट-पत्थर लगाये बने
देवघर में कोई नहीं जाता

घड़ी का चौथा काँटा जो
श्वास-अन्तरालों से पराजित हो
उखाड़ फेंका गया जहाँ

कभी न कभी वह
पाँव में धँसेगा ज़रूर
तुम्हारे या मेरे