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काँटों को गुलाब दे रहा हूँ / कृश्न कुमार 'तूर'


काँटों को गुलाब दे रहा हूँ
दुनिया को किताब दे रहा हूँ

हर दिल में उगा रहा हूँ सूरज
हर आँख को ख़्वाब दे रहा हूँ

जो लोग फ़रेबे-जाँ हैं उनको
ज़ख़्मों का हिसाब दे रहा हूँ

सजदे में झुका रहा हूँ सर को
सूरज को जवाब दे रहा हूँ

लड़ता हूँ हवा से मिसले-वहशी
आँखों को सराब दे रहा हूँ

ख़ुद से भी हूँ मैं कुछ अब गुरेज़ाँ
ये कैसा हिसाब दे रहा हूँ

हाथों में हरूफ़ करके रौशन
ऐ ‘तूर’ किताब दे रहा हूँ