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काँधे कान्ह कमरिया कारी, लकुट लिए कर घेरै हो / सूरदास
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काँधे कान्ह कमरिया कारी, लकुट लिए कर घेरै हो ।
बृंदाबन मैं गाइ चरावै, धौरी, धूमरि टेरै हो ॥
लै लिवाइ ग्वालनि बुलाइ कै, जहँ-जहँ बन-बन हेरै हो ।
सूरदास प्रभु सकल लोकपति, पीतांबर कर फेरै हो ॥
भावार्थ :-- कन्हाई कंधे पर काला कम्बल और हाथ में छड़ी लेकर गायें हाँकता है ।वृन्दावन में वह गायें चराता है और `धौरी', `धूमरी' इस प्रकार नाम ले-लेकर उन्हें पुकारता है । गोपकुमार को पुकार कर साथ लेकर -लिवाकर जहाँ-तहाँ वन-वनमें उन (गायों)को ढूँढ़ता है । सूरदास का यह स्वामी समस्त लोकों का नाथ होने पर भी हाथ से पीताम्बर(पटुका) उड़ा रहा है । (इस संकेत से गायों को बुला रहा है ।)