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कांई सांचाणी ! / मदन गोपाल लढ़ा
Kavita Kosh से
कींकर झूठो मानूं
बां दिनां रै सांच नै
जद हेत रै रूंख हेठै
बैठ‘र आपां करता गुरबत।
जद घड़ी ई
कोनी आवड़तो आपां नै
एक-दूजै बिना
चांद सूं फूटरो लागतो
थारो उणियारो
अर मिसरी सूं मीठो
थारो बोलणो,
रात माथै
सदीव भारी पड़ती
आपणी बात।
बगत परवाण
कांई ठाह कींकर
सांच इण ढ़ाळै
नागो हुय परो
आपरै कांटा सूं
लोहीझाण कर दियो
म्हारो डील।
कठै गई बा प्रीत
कठै गमग्या बै गीत
कींकर लागै अणखावणो
एक-दूजै रो उणियारो।
हेत रै हिमाळै
आपणै बिचाळै
ओ आंतरो
ओ मून
कुण पसारग्यो ?
कांई दिवलै रै तेल
अर कलम री रोसनाई दांई
हेत पण निवड़ जावै !!
इण भांत ??