कांत कामना / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
ऐ नव-जीवन के जीवन-धान, ऐ अनुरंजन के आधार;
ऐ मंजुलता के अवलंबन, ऐ रसमयता के अवतार!
ऐ उमंगमय मानस के मधु, ऐ तरंगमय चित के चाव!
प्रकृति-कंठ के हार मनोहर, भव-भावुकता के अनुभाव!
ऐ कुसुमाकर, जो भारत को कुसुमित करते हो कर प्यार,
तो जीवन-विहीन में कर दो अभिनव-जीवन का संचार।
मलय-पवन नित मंद-मंद बह करे मंदता मन की दूर;
सौरभ-रहित भाव-भवनों में सरस सुरभि भर दे भरपूर।
कोकिल की काकली सुनावे वह अति कलित अलौकिक गान,
जिससे कुंठित विपुल कंठ में पूरित हो उत्कंठित तान।
भरी मत्तता मोहकता से अलि-कुल की आकुल झंकार;
झंकृत करे अझंकृत मानस, छेड़े हृतंत्री के तार।
तरु-किसलय की नवल लालिमा भरे लोचनों में अनुराग;
लता-बेलियों के विलास से विलसे अंतर का नव राग।
विकसे-विकसे कुसुम देख हो देश-प्रेम का परम विकास;
जाति-वासनाएँ बन जाएँ सरस वास का वर आवास।
लाली मुख की रखे मुखों पर लग-लग करके लाल गुलाल;
रंजित करे अरंजित जन को आरंजित अबीर का थाल।
रंग बिगड़ता रहे बनाता समय रंग रख-रख कर रंग;
भंग-भंग कर सके न गौरव सुउमंगित हो फाग उमंग।