भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
काअ़बा में जा रहा तो न दो ताना / ग़ालिब
Kavita Kosh से
काअ़बा में जा रहा तो न दो ताना
भूला हूं हक़क़-ए-सुहबत-ए-अहल-ए-कुनिशत को
ताअत में ता रहे न मै-ओ-अनगबीं की लाग
दोज़ख़ में डाल दो कोई ले कर बिहिशत को
हूं मुनहरिफ़ न कयूं रह-ओ-रसम-ए-सवाब से
टेढ़ा लगा है क़त क़लम-ए-सर-नविश्त को
ग़ालिब कुछ अपनी सय से लहना नहीं मुझे
ख़िरमन जले अगर न मलख़ खाए किशत को