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कागज़ की डोंगियाँ / दुष्यंत कुमार

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यह समंदर है।
यहाँ जल है बहुत गहरा।
यहाँ हर एक का दम फूल आता है।
यहाँ पर तैरने की चेष्टा भी व्यर्थ लगती है।

हम जो स्वयं को तैराक कहते हैं,
किनारों की परिधि से कब गए आगे?
इसी इतिवृत्त में हम घूमते हैं,
चूमते हैं पर कभी क्या छोर तट का?
(किंतु यह तट और है)

समंदर है कि अपने गीत गाए जा रहा है,
पर हमें फ़ुरसत कहाँ जो सुन सकें कुछ!
क्योंकि अपने स्वार्थ की
संकुचित सीमा में बंधे हम,
देख-सुन पाते नहीं हैं
और का दुख
और का सुख।

वस्तुतः हम हैं नहीं तैराक,
खुद को छल रहे हैं,
क्योंकि चारों ओर से तैराक रहता है सजग।

हम हैं नाव कागज़ की!
जिन्हें दो-चार क्षण उन्मत्त लहरों पर
मचलते देखते हैं सब,
हमें वह तट नहीं मिलता
(कि पाना चाहिए जो,)
न उसको खोजते हैं हम।
तनिक सा तैरकर
तैराक खुद को मान लेते हैं,
कि गलकर अंततोगत्वा
वहाँ उस ओर
मिलता है समंदर से जहाँ नीलाभ नभ,
नीला धुआँ उठता जहाँ,
हम जा पहुँचते हैं;
(मगर यह भी नहीं है ठीक से मालूम।)

कल अगर कोई
हमारी डोंगियों को ढूँढ़ना चाहे....
.........................?