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कागज़ पर छपे सूर्य से दिन नहीं उगे / पुरुषोत्तम प्रतीक
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कागज़ पर छपे सूर्य से
दिन नहीं उगे
ऐसे कुछ वक़्त ने ठगे !
मुर्गों की कलगियाँ लगा
शाख़-शाख़ कउए तैनात
बाँगते रहे दोपहरी
बेचारे काल के सगे !
चौराहे धूप सूँघकर
गर्वाए
देव-द्वार-से
जयकारे चान्दी के नाम,
बिस्तर के नाम रतजगे !
वातायन द्वार हो गए
अम्बर तक छल की मीनार
गलियों में रो रहे कबीर,
कीकर पर आम क्या लगे !