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काग़ज़ पर इक याद पुरानी लिखता हूँ / भरत दीप माथुर
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काग़ज़ पर इक याद पुरानी लिखता हूँ
मैं भी अपनी राम कहानी लिखता हूँ
कैसे एक नज़र में उन से इश्क़ हुआ
इस बाबत अपनी हैरानी लिखता हूँ
सब जिस को आँखों का पानी कहते हैं
मैं उस को दरिया तूफ़ानी लिखता हूँ
मैं माज़ी में जाता हूँ जितना पीछे
उतना ही ज़्यादा रूहानी लिखता हूँ
काग़ज़ को सिंदूरी रँग देता हूँ मैं
उसके ऊपर शाम सुहानी लिखता हूँ
लिखता हूँ मैं फूलों की नादानी भी
और काँटों की बेईमानी लिखता हूँ
केवल दर्द बयानी करता हूँ मैं तो
वो कहते हैं क्या रूमानी लिखता हूँ