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काग़ज़ / आग़ा शाहिद अली / अनिल जनविजय

चन्दा आफ़ताब नहीं बन पाया
और, बस, गिर पड़ा सहरा में
तुम्हारे हाथों से बने
चान्दी के बड़े-बड़े पन्नों की शक़्ल में ।

ज़मीदोज़ हो गई कविताएँ,
रात बदल गई तुम्हारे घरेलू उद्योग में
और दिन एक ऐसी दुकान में, जो ख़ूब चलती है ।

यह दुनिया काग़ज़ों से भरी है
तुम मुझे कुछ लिखना ।
 
अँग्रेज़ी से अनुवाद : अनिल जनविजय