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काग़ज के फूल / बाल गंगाधर 'बागी'

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क़लम काग़ज के फूल सी, बेहिस अंगुलियों में रही
हम बनाये कंपनी, तब बाजार में बिकती रही
आखिर बेजुबान अंगुलियां, हाथों से क्या कहती
पसीने की स्याही, मेरी फ़रियाद पे सहमी रही

काग़ज के गट्ठर तले, बेजुबान दम घुटता रहा
सर के बालों का बना, मेहराब यह कहता रहा
कारखानों में क़लम, काग़ज को पैदा करते हैं
हक़ीक़त की दुनिया में, पोसीदा पर दौड़ता रहा

निजीकरण स्कूलों में हुई क्यों नाकाबन्दी?
फीस हजारों रुपये में चलती चौकन्नी
प्रवेश द्वार ऊंची इमारत यह समझाते हैं
यहाँ नहीं चलती कोई अठन्नी-चवन्नी

बाजार गर्म इस सौदे का, खरीददार कौन होगा?
दमड़ी में कुछ दम नहीं फिर नायबदार कौन होगा?
जग्गू के घर में रोटी नहीं, क्या बच्चे यहाँ पढ़ पायेंगे
फिर शिक्षा की कम्पनियों का, हिस्सेदार कौन होगा?

रात में पाठशालाओं में शिक्षा का स्तर कुछ नहीं
मेहनतकश शिक्षक भी, जहाँ पढ़ानें में कुछ दक्ष नहीं
गुरबत लाचारी भुखमरी में बच्चे न पढ़ लिख पाते हैं
निजी स्कूल जा सकते नहीं, ऐसे आगे न बढ़ पाते हैं