भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कागा मत बोल रे ! / शशिकान्त गीते
Kavita Kosh से
बैठे जितना बैठ मुण्डेरों
पर कागा मत बोल रे !
बिन बोले आए पहले ही
दुख बन बैठे हैं बाशिन्दे
छोटी- मोटी और पुरानी
चादर अपनी चिन्दे- चिन्दे
मीठे बोल न बोल मगर
विष, खारे में मत घोल रे !
आँगन धूँ- धूँ जलता है पर
चूल्हे की आगी है ठण्डी
सुविधा के व्यापारी, आँखों
आगे मारे जाते डण्डी
ऐसे माथों बैठ कि बदले
जीवन का भूगोल रे !